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________________ ९२) छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, ११. उवसामगाणं पमाणं हवदि । (सउक्कास्सपमाणजीवसहिदा सव्वे समया जुगवं ण लहंति त्ति के वि पुव्वुत्तपमाणं पंचूर्ण करेंति। एदं पंचूणं वक्खाणं पवाइज्जमाणं दक्खिणमाइरियपरंपरागयमिदि जं वुत्तं होइ । पुव्वुत्तवक्खाणमपवाइज्जमाणं वाउं आइरियपरंपरा-अणागदमिदि णायव्वं । ___ चउण्हं खवा अजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसेण एको वा दो वा तिणि वा, उक्कस्सेण अडोत्तरसदं ॥११॥ अट्ठसमयाहिय-छ-मासभंतरे खवगसेढिपाओग्गा अट्ठ समया हवंति । तेसिं समयाणं विसेसविवक्खमकाऊण सामण्णपरूवर्ण कीरमाणे जहण्णेण एगो जीवो खवगगुणहाणं पडिवज्जदि । उक्कस्सेण अट्टोत्तरसयमेत्तजीवा खवगगुणट्ठाणं पडिवज्जति । विसेसमस्सिदूण परूविज्जमाणे पढमसमए एगजीवमाइं काऊण जा उक्कस्सेण वत्तीस जीवा त्ति खवगसेढिं चडंति । विदियसमए एगजीवमाई काऊग जा उकास्सेण अडदालीस जीवा त्ति खवगसेटिं चडति । तदियसमए वि एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण सट्टि जीवा त्ति खवगसेटिं चडंति । चउत्थसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्करसेण वाहत्तरि जीवा त्ति ___ अपने इस उत्कृष्ट प्रमाणवाले जीवोंसे युक्त संपूर्ण समय एकसाथ नहीं प्राप्त होते हैं। इसलिये कितने ही आचार्य पूर्वोक्त प्रमाणसे पांच कम करते हैं। पूर्वोक्त प्रमाण से पांच कमका यह व्याख्यान प्रवाहरूपसे आ रहा है, दक्षिण है और आचार्य-परंपरागत है, यह इस कथनका तात्पर्य है। तथा पूर्वोक्त ३०४ का व्याख्यान प्रयाहरूपसे नहीं आ रहा है, वाम है, आचार्य-परंपरासे अनागत है, ऐसा जानना चाहिये। __ चारों गुणस्थानोंके क्षपक और अयोगिकेवली जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशकी अपेक्षा एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ हैं॥११॥ आठ समय अधिक छह महीनाके भीतर क्षपकश्रेणीके योग्य आठ समय होते हैं। उन समयोंके विशेष कथनकी विवक्षा न करके सामान्यरूपसे प्ररूपण करने पर जघन्यसे एक जीव क्षपक गुणस्थानको प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्टरूपसे एकसौ आठ जीव क्षपक गुणस्थानको प्राप्त होते हैं। विशेषका आश्रय लेकर प्ररूपण करने पर प्रथम समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे बत्तीस जीवतक क्षपकश्रेणी पर चढ़ते हैं। दूसरे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे अड़तालीस जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समय में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे साठ जीवतक क्षपक श्रेणी पर चढ़ते हैं। चौथे समयमें एक जीवको १ सर्वोत्कृष्ट प्रमाश्लिष्टा लल्यन्ते न यतः क्षणाः । आचार्यैरपरैरुक्ताः पंचभी रहितास्ततः ॥ पं. सं. ६८. २ चत्वारः क्षपका अयोगिकेवलिनश्च प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा। उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । स. सि. १, ८. खवगा स्त्रीणाजोगी एगाह जाव होति अट्ठसयं । पञ्चसं. २, २४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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