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________________ १, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइट्ठिआदिपमाणपरूवणं [६७ सपमाणं पावदि । एकवीससहस्स-छस्सयमेतपाणेहि संवच्छरियाण दिवसो होदि । एत्थ पुण एगलक्ख-तेरहसहस्स-णउदि-सयपाणेहि दिवसो होदि । पाणेहि विप्पडिवण्णाणं संवच्छरियाणं कालववहारो कधं घडदे ? ण, केवलिभासिददिवसमुहुत्तेहि समाणदिवस. मुहुत्तभुवगमादो। एवं परूविदमुहुत्तुस्सासे ठवेऊण तत्थ एगो उस्सासो घेत्तव्यो । संखेज्जावलियाहि एगो उस्सासो णिप्फज्जदि त्ति सो उस्सासो संखेज्जावलियाओ कयाओ। तत्थ एगमावलियं घेत्तूण असंखेज्जेहि समएहि एगावलिया होदि त्ति असंखेज्जा समया कायव्या । तत्थ एगसमए अवणिदे सेसकालपमाणं भिण्णमुहुत्तो उच्चदि । पुणो वि अवरेगे समए अवणिदे सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं होदि । एवं पुणो पुणो समया अवयव्या जाव उस्सासो णिहिदो त्ति । तो वि सेसकालपमाणमंतोमुहुत्तं चेव होइ । एवं सेसुस्सासे वि अवयव्या जावेगावलिया सेसा त्ति । सा आवलिया वि ..................................... गुणनफल आवे उसमें सात कम नौ सौ अर्थात् आठसौ तेरानवे और मिलाने पर सूत्रमें कहे गये मुहूर्तके उच्छासोंका प्रमाण होता है, इसलिये प्रतीत होता है कि उपर्युक्त मुहूर्तके उच्छासोंका प्रमाण सूत्रविरुद्ध है। यदि सात सौ बीस प्राणोंका एक मुहूर्त होता है, इस कथनको मान लिया जाय तो केवल इक्कीस हजार छह सौ प्राणों के द्वारा ही ज्योतिषियों के द्वारा माने हए दिन अर्थात अहोरात्रका प्रमाण होता है। किन्तु यहां आगमानुकूल कथनके अनुसार तो एक लाख तेरह हजार और एक सौ नव्ये उच्छासोंके द्वारा एक दिन अर्थात् अहोरात्र होता है। शंका-इसप्रकार प्राणों के द्वारा दिवसके विषयमें विवादको प्राप्त हुए ज्योतिषियों के कालव्यवहार कैसे बन सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, केवलीके द्वारा कथित दिन और मुहूर्तके समान ही ज्योतिषियोंके दिन और मुहूर्त माने गये हैं, इसलिये उपर्युक्त कोई दोष नहीं है। इसप्रकार केवल के द्वारा प्रतिपादित एक मुहूर्तके उच्छासोंको स्थापित करके उनमेंसे एक उच्छास ग्रहण करना चाहिये। संख्यात आवलियोंसे एक उच्छास निष्पन्न होता है, इसलिये उस एक उच्छासकी संख्यात आवलियां बना लेना चाहिये । उन आवलियोंमेंसे एक आवलीको ग्रहण करके, असंख्यात समयोंसे एक आवली होती है, इसलिये उस आवलीके असंख्यात समय कर लेना चाहिये। , यहां मुहूर्तमेंसे एक समय निकाल लेने पर शेष कालके प्रमाणको भिन्नमुहूर्त कहते हैं । उस भिन्नमुहूर्तमेंसे एक समय और निकाल लेने पर शेष कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त होता है। इसप्रकार उत्तरोत्तर एक एक समय कम करते हुए उच्छासके उत्पन्न होने तक एक एक समय निकालते जाना चाहिये । वह सब एक एक समय कम किया हुआ काल भी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही होता है । इसीप्रकार जब तक आवली उत्पन्न नहीं होती है तब तक शेष रहे हुए एक उच्छासमेंसे भी एक एक समय कम करते जाना चाहिये । ऐसा करते हुए जो आवली उत्पन्न होती है उसे भी अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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