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________________ ६६] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, ६. ( अट्टत्तीसद्धलवा णाली वे णालिया मुहुत्तो दु । एगसमएण हीणो भिण्णमुहुत्तो भवे सेसं ॥ ३१ ॥ अडस्स अणलसस्स य णिरुवहदस्स य जिणेहि जंतुस्स । उस्सासो हिस्सासो एगो पाणो त्ति आहिदो एसो ॥ ३५ ॥ . तिणि सहस्सा सत्त य सयाणि तेहत्तरं च उस्सासा । एगो होदि मुहत्तो सम्वेसिं चेव मणुयाण ॥ ३६॥ सत्तसएहि वीसुत्तरेहि पाणेहि एगो मुहुत्तो होदि त्ति केवि भणंति, पाइयपुरिसुस्सासे दट्टण तण्ण घडदे । कुदो ? केवलिभासिदत्थादो पमाणभूदेण अण्णेण सुत्तेण सह विरोहादो । कधं विरोहो ? जेणेदं चउहि गुणिय सत्तूण-णवसदं पक्खित्ते सुत्तुत्तुस्सा साढ़े अड़तीस लवोंकी एक नाली होती है, और दो नालियोंका एक मुहूर्त होता है। तथा मुहूर्तमेसे एक समय कम करने पर भिन्न मुहूर्त होता है, और शेष अर्थात् दो, तीन आदि समय कम करने पर अन्तर्मुहूर्त होते हैं ॥ ३४॥ जो सुखी है, आलस्यरहित है और रोगादिककी चिन्तासे मुक्त है, ऐसे प्राणीके श्वासोच्छासको एक प्राण कहते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ॥ ३५॥ सभी मनुष्योंके तीन हजार सातसौ तेहत्तर उच्छासोंका एक मुहूर्त होता है ॥३६॥ कितने ही आचार्य सातसौ बीस प्राणोंका एक मुहूर्त होता है, ऐसा कहते हैं; परंतु प्राकृत अर्थात् रोगादिसे रहित स्वस्थ मनुष्यके उच्छासोंको देखते हुए उन आचार्योंका इसप्रकार कथन करना घटित नहीं होता है, क्योंकि, जो केवली भाषित अर्थ होने के कारण प्रमाण है, ऐसे अन्य सूत्रके कथनके साथ उक्त कथनका विरोध आता है। शंका-सूत्रके कथनसे उक्त कथनमें कैसे विरोध आता है ? समाधान-क्योंकि ऊपर कहे गये सातसौ बीस प्राणोंको चारसे गुणा करके जो १ गो. जी. ५७५. होति हु असंखसमया आवलिणामो तहेव उस्सासो। संखेज्जावलिणिवहो सो चेव पाणो त्ति विवखादो ॥ सत्तुस्सासो थोव सत्त थत्रा लव ति णादवो। सत्तत्तरिदलिदलवा णाली वे णालिया मुहुत्तं च ॥ ति. प. पत्र ५०. ग. सा. १, ३२-३४, असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति वुच्चइ, संखेज्जाओ आवलिओ ऊसासो, संखिज्जाओ आवलिआओ नीसासो, सत्त पाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए एस मुहुत्ते विआहिए। अनु. पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००. २ गो. जी. ५७४. टी. हट्ठस्स अणवगल्लस्स निरुवकिट्ठस्स जंतुणो। एगे ऊसासनीसासे एस पाणु त्ति वुच्चइ । अनु. पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००. ___३ आब्यानलसानुपहतमनुजोच्छ्वासस्त्रिसप्तसप्तत्रिमितैः । आहुर्मुहूर्तम् ...॥ गो. जी., जी. प्र. टी., १२५. तिणि सहस्सा सत्त य सयाई तेहुत्तरि च ऊसासा। एस मुहुत्तो भणिओ सबेहिं अणंतनाणीहिं। अनु, पृ. १६४. व्या. प्र. पृ. ५००. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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