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________________ ६८ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, ६. अंतोमुहुत्तमदि भण्णदि । तदो अवरेण आवलियाए असंखेजदिभाएण तहि आवलियम्ह भागे हिदे जं भागलद्धं तं असंजदसम्माइट्ठिअवहार कालो होदि । एसो वि कालो अंतोमुहुत्तमेव । असंजदसम्माइडिअवहारकालमवरेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे सम्मामिच्छाइड्डिअवहारकालो होदि । तं संखेज्जरूयेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे हि संजदासंजद अवहारकार्लो होदि । ओघसासणसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदाणं अवहारकालो असंखेज्जदिभागो ण होदि, असंखेज्जावलियाहि होदव्वं । तं कुदो णच्वदे ? 'उवसमसम्माइट्ठी थोवा | खइयसम्माइडी असंखेज्जगुणा । वेदयसम्माइट्ठी असंखेज्जगुणा' 'त्ति अप्पा बहुग सुत्तादो व्वदे । तं जहा, खइयसम्म इट्ठीणमवहारकालेग ताव संखेज्जाव - लियमेत्तेण आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्तेण वा होदव्त्रं, अण्णहा मणुस्सेसु असंखे तदनन्तर दूसरी आवलीके असंख्यातवें भागका उस आवलीमें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंके प्रमाणके निकालनेके विषय में अवहारकालका प्रमाण होता है । यह काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है । असंयतसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालको दूसरी आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टिविषयक अवहारकाल होता है । इसे संख्यात से गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर संयतासंयतविषयक अवहारकाल होता है । इसप्रकार जो पूर्वोक्त चार गुणस्थानवाले जीवोंका अवहारकाल बतलाया है उसमें सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयतविषयक सामान्य अवहारकाल आवलीके असंख्यातवें भाग नहीं होता, किन्तु उसे असंख्यात आवलीप्रमाण होना चाहिये । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-' उपशमसम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होते हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे होते हैं और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे होते हैं ' इस अल्पबहुत्वके प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे उक्त बात जानी जाती है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है क्षायिक सम्यग्दष्टियों का अवहारकाल संख्यात आवली अथवा आवलीके संख्यातवें भागप्रमाण होना चाहिये । यदि ऐसा न माना जावे तो मनुष्यों में असंख्यात क्षायिकसम्यदृष्टि १ असंजदसम्मादिट्टिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी । खध्यसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा । वेदगसम्मादिठ्ठी असंखेज्जगुणा ॥ जी. डा. अ. ब. १५-१७. सू. तदनन्तरं ( औपशमिकानन्तरम् ) क्षायिकग्रहणं तस्य प्रतियोगित्वात्संसार्यपेक्षया द्रव्यतस्ततोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । तत उत्तरं मिश्रग्रहणं तदुभयात्मकत्वाचतोऽसंख्येयगुणत्वाच्च । स. सि. २, १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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