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छडागमे जीवाणं
[ १, २, ९१.
एत्थ सुत्तसूचिदमाइरिओवरसेण भागहाराणं विसेसं भणिस्साम । तं जहापलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण सूचिअंगुलमवहरिय लद्धं वग्गिदे बादरआउकाइयपज्जत्तअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे बादरपुढविकाइयपज्जत अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेदिभाएण गुणिदे बादरणिगोदपदिट्ठिदपज्जत अवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभारण गुणिदे बादरवणष्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तअवहारकालो होदि । कारणं, सगरासिबहुत्तणिबंधणत्ता । एदेसि - मवहारकालाणं खंडिदादीणं पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवंरि पदरंगुलभागहारो एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागे । एदेहि अवहारका लेहि जगपदरे भागे हिदे संगसगदव्वपमाणमागच्छदि । बादरते उपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा । असंखेज्जावलियवग्गो आवलियघणस्स अंतों ॥ ९१ ॥
अपने अपने अंगुलको आत्मांगुल कहते हैं । इनमें से यहां प्रमाणांगुलरूप सूच्यंगुलका ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि, द्वीप आदिकी गणना में यही अंगुल लिया गया है । इसीप्रकार द्रव्यप्रमाणानुगममें जहां अंगुलका संबन्ध आया है वहां इसी अंगुलका अभिप्राय जानना चाहिये । अब यहां पर आचार्योंके उपदेशानुसार सूत्रसे सूचित भागद्दारोंके विशेषको कहते हैं । वह इसप्रकार है- पल्योपमके असंख्यातवें भागसे सूच्यंगुल को भाजित करके जो लब्ध आवे उसके वर्गित करने पर बादर अकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर roars पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है । इस बादर निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्त जीवोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंका अवहारकाल होता है। यहां अवहारकालोंके उत्तरोत्तर अधिक होनेका कारण यह है कि पूर्व पूर्ववर्ती अपनी अपनी राशि बहुत बहुत पाई जाती है । इन अवहारकालोंके खंडित आदिकका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यचके खंडित आदिकके कथन के समान करना चाहिये । इतना विशेष है कि वहां पर प्रतरांगुल भागहार है और यहां पर पस्योपमका असंख्यातवां भाग भागद्दार है । इन अवहारकालोंसे जगप्रतरके भाजित करने पर अपने अपने द्रव्यका प्रमाण आता है ।
बादर तेजस्कायिक पर्याप्त जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं । यह असंख्यातरूप प्रमाण असंख्यात आवलियों के वर्गरूप है जो आवलीके घन के भीतर आता है ।। ९१ ॥
१ विदावलिलो गाणमसंख संखं च तेउवाऊण। पञ्जत्ताणं पमार्ण... ॥ गो. जी. २१०. आवलिवग्गी अन्तरानलीय गुणिओ हु बायरा तेऊ । पञ्चसं. २, ११.
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