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________________ १०८] छक्खंडागमे जीवहाणं [ १, २, १२३. मणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा मोसमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सच्चमणजोगिसंजदासंजदरासी होदि। (सुत्तेण विणा वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी तिरिक्खसम्मामिच्छाइद्विप्पहुडि तीहिं वि रासीहितो असंखेज्जगुणहीणो ति कधं णव्वदे ? आइरियवयणादो । आइरियवयणमणेयंतमिदि चे, होदु णाम, णस्थि मज्झेत्थ अग्गहो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा वेउव्वियमिस्सकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि। सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिअसंजदसम्माइद्विरासी होदि । सेसमसंखेजखंडे कए बहुखंडा ओरालियमिस्सकायजोगिसासणसम्माइद्विरासी होदि । सेसमसंखेजखंडे कए यहुखंडा वेउब्धियमिस्सकायजोगिसासणा होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा कम्मइयकायजोगिसासण सम्माइद्विरासी होदि । सेसं जाणिऊण णेयव्यं ।। अप्पाबहुअंतिविहं सत्थाणादिभेएण । सत्थाणे पयदं । पंचमणजोगि-तिण्णिवचिजोगि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग मृषामनोयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सत्यमनोयोगी संयतासंयत जीवराशि है। शंका-सूत्रके विना वैक्रियिकमिश्र काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवराशि तिर्यच सम्यमिथ्यादृष्टि जीवराशिसे लेकर तीनों राशियोंसे असंख्यातगुणी हीन है, यह कैसे जाना जाता है? समाधान-यह कथन आचार्यों के वचनसे जाना जाता है। शंका-आचार्योंके वचनोमें अनेकान्त है, अर्थात् वे अनेक प्रकारके पाये जाते हैं ? समाधान-यदि वे अनेक प्रकारके पाये जाते हैं तो पाये जाओ, इसमें हमारा आग्रह नहीं है। ___ सत्यमनोयोगी संयतासंयत राशिके अनन्तर जो एक भाग शेष रहे उसके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग औदारिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वैक्रियिकमिश्रकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग कार्मणकाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि है । शेष कथन समझकर ले जाना चाहिये । ___ स्वस्थान आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे स्वस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है। पांचों मनोयोगी, तीन वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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