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________________ १, २, ८६. ] दवमाणागमे एइंदियादिभागाभागपरूवण [ ३२१ २४० । बादरेईदियरासी सोलसमेत १६ । सुहुमेइंदियपज्जत्तरासी असीदिसयमेत्ता १८० । तेसिमपज्जत्ता सट्ठी ६० हवंति । बादरेइंदियअपज्जत्ता वारस १२ हवंति । तेसिं पज्जचा चत्तारि ४ । संपहि वेईदियपज्जतरासीदो वेइंदिय-तेईदियरासीणं विसेसो किं सरिसो किमहिओ हो वा इदि वृत्ते असंखेज्जगुणो हवदि । तं जहा । वुच्चदे - तेइंदिय - चउरिंदियरासीणं विसेसादो वेदिय - तेइंदियरासिविसेस असंखेज्जगुणो । तं कथं जाणिजदे ? आइरिओवदेसादो भागाभागम्हि परूविदवक्खाणादो य जाणिज्जदे । तेइंदिय - चउरिंदियरासिविसेसो पुण तेईदियपज्जत्तरासीदो बहुगो । तं कथं णव्वदे १ तेईदियअपज्जत्तरासीदो चउरिंदियरासी विसेसहीणो ति वृत्तअप्पाबहुगसुत्तादो । तेईदियपज्जत्तरासीदो पुण वेइंदियपज्जत्तरासी विसेसहीण । तं कथं व्वदे ? एदं पि अप्पाबहुग सुत्तादो चेव णव्वदे । तदो जाणिजदे जहा वीइंदियपज्जत्तरासीदो विसेसाहियतीईदियपज्जत्तरासीदो बहुदरतीईदिय- चउरिंदिय । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि साठ ६० है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि बारह १२ है और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त राशि चार ४ है । अब द्वन्द्रय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय राशियोंका विशेष अर्थात् अन्तर क्या समान है, क्या अधिक है या हीन है ? ऐसा पूछने पर द्वीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे असंख्यातगुणा है ऐसा समझना चाहिये । वह इसप्रकार है । आगे उसीको कहते हैं— त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशि के विशेषसे द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवराशिका विशेष असंख्यातगुणा है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - आचार्योंके उपदेशसे और भागाभाग में प्ररूपण किये गये व्याख्यान से जाना जाता है । श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशिका विशेष त्रीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे अधिक है। शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान — त्रीन्द्रिय अपर्याप्त राशिके प्रमाणसे चतुरिन्द्रिय राशि विशेष हीन है ऐसा अल्पबहुत्वके सूत्रमें कहा है, अतएव उससे जाना जाता है । श्रीन्द्रिय पर्याप्त राशिके प्रमाणसे द्वीन्द्रिय पर्याप्त राशिका प्रमाण विशेष हीन है । शंका- - यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - यह भी अल्पबहुत्व के सूत्रसे ही जाना जाता है । इसलिये जाना जाता है कि जिसप्रकार द्वन्द्रिय पर्याप्त राशिसे श्रीन्द्रिय पर्याप्त राशि विशेष अधिक है और इससे त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय राशिका विशेष बड़ा है। श्रीन्द्रिय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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