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________________ १, २, १५. दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [१२३ पाम ठवणा दवियं सस्सद गणणापदेसियमसंखं । एयं उभयादेसो वित्थारो सव्व-भावा य ॥ ५७ ॥ तत्थ णामासंखेज्जयं णाम जीवाजीवमिस्ससरूवेण हिदअभंगासंखेजाणं कारणणिरवेक्खा सण्णा । जं तं दुवणासंखेजयं तं कहकम्मादिसु सब्भावासम्भावट्ठवणाए ठविदं असंखेजमिदि । जं तं दव्यासंखेजयं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमो गंथो सिद्धतो सुदणाणं पवयणमिदि एयट्ठो। (पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहतेः । द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ५ ॥ आगमादण्णो णोआगमो । तत्थ असंखेज्जपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदो दव्यासंखेज्जयं । किं कारणं ? खवोवसमविसिहजीवदव्यस्स कथंचि खवोवसमादो अव्व. दिरित्तस्स आगमववदेसाविरोहादो । जं तं णोआगमदो दव्यासंखेज्जयं तं तिविहं, जाणुगसरीरदव्यासंखेजयं भवियदव्वासंखेज्जयं जाणुगसरीरभवियवदिरित्तदव्यासंखेज्जयं चेदि। तत्थ जं तं जाणुगसरीरदव्यासंखेज्जयं तं असंखेज्जपाहुडजाणुगस्स सरीरं भवियवद्रमाणसमुज्जादत्तणेण तिभेदमावणं । कधमणागमस्स सरीरस्स असंखेज्जववएसो ? ण एस दोसो, नाम, स्थापना, द्रव्य, शाश्वत, गणना, अप्रदेशिक, एक, उभय, बिस्तार, सर्व और भाव इसप्रकार असंख्यात ग्यारह प्रकारका है ॥ ५७ ॥ उनमेंसे जीव, अजीव और मिश्ररूपसे स्थित असंख्यात पदार्थोके भेदोंकी कारणके विना असंख्यात ऐसी संशा रखना नाम असंख्यात है । काष्ठकर्मादिकमें साकार और निराकार. रूपसे यह असंख्यात है, इसप्रकारकी स्थापना करना स्थापना असंख्यात है। द्रव्य असंख्यात आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। आगम, ग्रन्थ, सिद्धान्त, श्रुतज्ञान और प्रवचन, ये एकार्थवाची नाम हैं। पूर्वापर विरुद्धादि दोषोंके समूहसे रहित और संपूर्ण पदार्थोके द्योतक आप्तवचनको आगम कहते हैं ॥५८॥ आगमसे अन्यको नोआगम कहते हैं। जो असंख्यातविषयक प्राभृतका ज्ञाता है परंतु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित है, उसे आगमद्रव्यासंख्यात कहते हैं, क्योंकि, क्षयोपशमयुक्त जीवद्रव्य क्षयोपशमसे कथंचित् अभिन्न है, इसलिये उसे आगम यह संज्ञा देने में कोई विरोध नहीं आता है। नोआगमद्रव्यासंख्यात तीन प्रकारका है, शायकशरिद्रव्यासंख्यात, भव्यद्रव्यासंख्यात, और शायकशरीर तथा भव्य इन दोनोंसे भिन्न तद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात। असंख्यात. विषयक शास्त्रको जाननेवालेके भावी, वर्तमान और अतीतरूपसे तीन भेदको प्राप्त हुए शरीरको बायकशरीरद्रव्यासंख्यात कहते हैं। शंका-आगमसे भिन्न शरीरको असंख्यात, यह संशा कैसे दी जा सकती है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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