SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १५. आधारे आधेयोवयारदसणादो । जहा असिसदं धावदि इदि । एत्थ ण घदकुंभदिलंतो जुज्जदे, कुंभस्स घदववएसादसणादो। घदमिदं चिढदि ति वट्टमाणकाले घदववएसो कुंभस्स उवलब्भदे ? चे ण, अदीदाणागदकालेसु कुंभस्स घदववएसदसणादो । जं तं भवियासंखेज्जयं तं भविस्सकाले असंखेज्जपाहुडजाणुगजीवो । ण च एस आगमदो दव्यासंखेज्जयम्हि णिवददि, संपहि एत्थ खोवसमलक्खणदव्योव-, ओगाभावादो। जे तं तव्यदिरित्तदव्यासंखेज्जयं तं दुविहं, कम्मासंखेज्जयं णोकम्मासंखेज्जयं चेदि । तत्थ अट्ठ कम्माणि ट्ठिदिं पडुच कम्मासंखेजयं । दीवसमुद्दादि णोकम्मासंखेजयं । धम्मत्थियं अधम्मत्थियं दव्यपदेसगणणं पडुञ्च एगसरूवेण अवविदमिदि कट्ट सस्सदासंखेजयं । जं तं गणणासंखेजयं तं परियम्मे वुत्तं । जं तं अपदेसासंखेजयं तं जोगविभागे पलिच्छेदे पडुच्च एगो जीवपदेसो। अथवा सुण्णोयं भंगो, असंखेज समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आधारमें आधेयका उपचार देखा जाता है। जैसे, सौ तरवारे (सौतरवारवाले) दौड़ती हैं। तात्पर्य यह है कि सौ तरवारोंके आधारभूत पुरुषों में आधेयभूत तरवारोंका उपचार करके जैसे सौ तरवारें दौड़ती हैं यह कहा गया है उसीप्रकार प्रकृतमें भी समझ लेना चाहिये। प्रकृतमें घृतकुम्भका दृष्टान्त लागू नहीं होता है, क्योंकि, कुम्भकी घृत संज्ञा ध्यवहारमें नहीं देखी जाती है। शंका--यह घृत रक्खा है, इसप्रकार वर्तमानकालमें कुम्भकी घृत संज्ञा पायी जाती है? समाधान-नहीं, क्योंकि, अतीत और अनागत कालमें कुम्भकी घृत यह संज्ञा देखी जाती है। जो जीव भविष्यकालमें असंख्यातविषयक प्राभृतका जाननेवाला होगा उसे भावि. द्रव्यासंख्यात कहते हैं। इसका आगमद्रव्यासंख्यातमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि, धर्तमानमें इसमें (भाविद्रव्यासंख्यातमें ) क्षयोपशमलक्षण द्रव्य उपयोगका अभाव है। तद्वयतिरिक्त द्रव्यासंख्यात दो प्रकारका है, कर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात और नोकर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात । उनमें आठों कर्म स्थितिकी अपेक्षा कर्मतद्वयतिरिक्तद्रव्यासंख्यात हैं। अर्थात् आठों कौकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात समय पड़ती है, इसलिये वे स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातरूप हैं। द्वीप और समुद्रादि नोकर्मतव्यतिरिक्तद्रव्यासंख्यात हैं। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय द्रव्यरूप प्रदेशोंकी गणनाके प्रति सर्वदा एकरूपले अवस्थित हैं, इसलिये वे दोनों द्रव्य शाश्वतासंख्यात हैं। गणनासंख्यातका स्वरूप परिकर्ममें कहा गया है । योगविभागमें जो अविभागप्रतिच्छेद बतलाये हैं, उनकी अपेक्षा जीवका एक प्रदेश अप्रदेशासंख्यात है। अथवा, असंख्यातमें उसका यह भेद शून्यरूप है, क्योंकि, असंख्यात पर्यायोंके आधारभूत अप्रदेशी एक द्रव्यका अभाव है। कुछ आत्माका एक प्रदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy