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________________ १, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिरयगदिपमाणपरूवणं [ १२५ पज्जायाणमाहारभूद-अप्पएसएगदव्याभावादो। ण च एगो जीवपदेसो दव्वं, तस्स जीवदव्यावयवत्तादो। पजवणए पुण अवलंबिजमाणे जीवस्स एगपदेसो वि दव्वं तत्तो वदिरित्तसमुदायाभावादो । जं तं एयासंखेजयं तं लोयायासस्स एगदिसा । कुदो ? सेढिआगारेण लोयस्स एगदिसं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखातीदादो । जं तं उभयासंखेजयं तं लोयायासस्स उभयदिसाओ, ताओ पेक्त्रमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो। जं तं सव्यासंखेञ्जयं तं घणलोगो। कुदो ? घणागारेण लोगं पेक्खमाणे पदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । जं तं वित्थारासंखेजयं तं लोगागासपदरं, लोगपदरागारपदेसगणणं पडुच्च संखाभावादो । जं तं भावासंखेञ्जयं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य । आगमदो भावासंखेज्जयं असंखेजपाहुडजाणगो उपजुत्तो । णोआगमदो भावासंखेजयं ओहिणाणपरिणदो जीवो । एदेसु असंखेजेसु गणणासंखेजेण पयंदं । जदि गणणासंखेज्जेण पयदं तो सेसदसविह-असंखेजपरूवणं किमढें कीरदे ? अपगदमवणिय पयदपरूवणहूँ । वुत्तं च द्रव्य तो हो नहीं सकता है, क्योंकि, एक प्रदेश जीवद्रव्यका अवयव है। पर्यायाथिक नयका अवलम्बन करने पर जीवका एक प्रदेश भी द्रव्य है, क्योंकि, अवयवोंसे भिन्न समुदाय नहीं पाया जाता है। लोकाकाशकी एक दिशा अर्थात् एक दिशास्थित प्रदेशपंक्ति एकासंख्यात है, क्योंकि, आकाश प्रदेशोंकी श्रेणीरूपसे लोकाकाशकी एक दिशा देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा उसकी गणना नहीं हो सकती है । लोकाकाशकी उभय दिशाएं अर्थात् दो दिशाओं में स्थित प्रदेशपंक्ति उभयासंख्यात है, क्योंकि, लोकाकाशके दो ओर देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। घनलोक सर्वासंख्यात है, क्योंकि, घनरूपसे लोकके देखने पर प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। प्रतररूप लोकाकाश विस्तारासंख्यात है, क्योंकि, प्रतररूप लोकाकाशके प्रदेशोंकी गणनाकी अपेक्षा वे संख्यातीत हैं। भावासंख्यात आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारका है। असंख्यातविषयक प्राभृतको जाननेवाले और वर्तमान में उसके उपयोगसे युक्त जीवको आगमभावासंख्यात कहते हैं । अवधिज्ञानसे परिणत जीवको नोआगमभावासंख्यात कहते हैं। इन ग्यारह प्रकारके असंख्यातों से प्रकृतमें गणनासंख्यातसे प्रयोजन है। शंका- यदि प्रकृतमें गणनासंख्यातसे ही प्रयोजन है तो शेष दश प्रकारके असंख्यातोंका वर्णन क्यों किया गया? समाधान-अप्रकृत विषयका निवारण करके प्रकृत विषयका प्ररूपण करनेके लिये, यहां सभी असंख्यातोंका वर्णन किया है। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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