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________________ १२६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १५. अपगयणिवारणळ पयदस्स परूवणाणिमित्तं च ।। संसयविणासणहूँ तच्चट्ठवहारणटुं च ॥ ५९॥ वुत्तं ज पुव्वाइरिएहि जत्थ जहा जाणेज्जो अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा। जत्थ बहुवं ण जाणदि चउहवो तत्थ णिक्खेवो ॥ ६० ॥ इदि । - अधवा णिक्खेवविसिटमेदं भणिज्जमाणं वत्तारस्सुप्पत्थोत्थाणं कुज्जा इदि णिक्खेवो कीरदे । तथा चोक्तम् प्रमाणनयनिक्षेपैर्योऽयों नाभिसमीक्ष्यते । __ युक्तं चायुक्तवद्भाति तस्यायुक्तं च युक्तवत् ॥ ६१ ॥ जं तं गणणासंखेजयं तं तिविहं, परित्तासंखेजयं जुत्तासंखेजयं असंखेज्जासंखेजयं चेदि वियप्पदो एकेकं तिविहं । तत्थ इमं होदि ति णिच्छओ उप्पाइज्जदे । अप्रकृत विषयका निवारण करनेके लिये, प्रकृत विषयका प्ररूपण करनेके लिये, संशयका विनाश करनेके लिये और तत्त्वार्थका निश्चय करनेके लिये यहां सभी असंख्यातोंका कथन किया है॥ ५९॥ पूर्वाचार्योंने भी कहा है जहां पदार्थों के विषयमें यथावस्थित जाने वहां पर नियमसे अपरिमित निक्षेप करना चाहिये । पर जहां पर बहुत न जाने वहां पर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये ॥ ६०॥ अथवा, निक्षेपके विना वर्ण्यमान विषय कदाचित् वक्ताको उत्पथमें ले जावे, इसलिये सभीका निक्षेप किया है। उसीप्रकार कहा भी है प्रमाण, नय और निक्षेपके द्वारा जिसका सूक्ष्म विचार नहीं किया जाता है वह युक्त होते हए भी कभी अयक्तसा प्रतीत होता है और अयक्त होते हुए भी कभी होता है॥ ६१॥ गणनासंख्यात तीन प्रकारका है, परीतासंख्यात, युक्तासंख्यात और असंख्यातासंख्यात । ये तीनों भी प्रत्येक उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे तीन तीन प्रकारके हैं। उक्त तीनों असंख्यातों से प्रकृतमें यह असंख्यात लिया है, आगे इसीका निश्चय कराते हैं तसा प्रतीत १जं तं असंखेज्जयं तं तिविधं, परित्तासंखेज्जयं जुत्तासंखेज्जयमसंखासखेज्जयं चेदि। जं तं परिचासंखेजयं तं तिविधं, जहण्णपरिचासखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सपरितासंखेज्जयं उक्कस्तपरिचासंखेज्जयं चेदि । जंतं जुत्तासंखेज्जयं तं तिविधं, जहण्णजुत्तासंखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सजुत्तासंखेज्जयं उक्कस्सजुत्तासंखेज्जयं चेदि । जं तं असंखेज्जासंखेज्जयं तं तिविधं जहण्णअसंखेज्जासंखेज्जयं अजहण्णमणुक्कस्सअसंखेज्जासंखेज्जय उक्कस्सअसंखेज्जा. संखेज्जयं चेदि । ति. प. पत्र. ५२. संखेज्जमसंखणंतमिदि तिविहं । संखं तिल्लदु तिविहं परित्त जुत्तं ति दुगवारं ॥ त्रि.सा. १३. संखिज्जेगमसंखं परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं । क. मं. ४, ७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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