________________
१, २, १५.] दव्वपमाणाणुगमे णिस्यगदिपमाणपरूवणं
[१२० परित्तासंखेजयं ण भवदि, जुत्तासंखेजयं पि ण भवदि, असंखेज्जासंखेज्जस्सेवं गहणं, असंखेज्जा इदि बहुवयणणिदेसादो । पाइए दोसु वि बहुवयणोवलंभादो वत्तिमुहेण सव्वेसु असंखेज्जबहुत्तविरोहाभावादो वा अणेयंतिओ हेदुरिदि चेत्तरिहि ' असंखेज्जासंखेजाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण' इत्ति पुरदो भण्णमाणसुत्तादो असंखेज्जासंखेज्जस्स उवलद्धी हवदि । तं पि तिविहं जहण्णमुक्कस्सं अजहण्णमुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयं चेदि । तत्थ वि जहण्णमसंखेज्जासंखेज्जयं ण भवदि उकस्समसंखेज्जासंखेज्जयं पि ण भवदि अजहण्णमणुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जस्सेव गहणं । कुदो ? 'जम्हि जम्हि असंखेज्जासंखेज्जयं मग्गिज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्णमणुकस्स-असंखेज्जासंखेज्जस्सेव गहणं भवदि'' इदि परियम्मवयणादो ।
तं पि अजहण्णमणुक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जयमसंखेज्जवियप्पमिदि इमं होदि त्ति ण जाणिज्जदे ? जहण्ण-असंखेज्जासंखेज्जादो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि
प्रकृतमें परीतासंख्यात विवक्षित नहीं है और युक्तासंख्यात भी नहीं लिया गया है, अतः यहां असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सूत्रमें ' असंखेज्जा' इसप्रकार बहुवचनरूप निर्देश किया है।
शंका-प्राकृतमें द्विवचनके स्थानमें भी बहुवचन पाया जाता है। अथवा, वृत्तिमुखसे सभी असंख्यातों में असंख्यातके बहुत्वके स्वीकार कर लेनेमें कोई विरोध नहीं आता है, इसलिये प्रकृतमें असंख्यातासंख्यातके ग्रहण करनेके लिये जो ' असंखेज्जा' यह बहुवचनरूप हेतु दिया है वह अनैकान्तिक है।
समाधान-यदि ऐसा है तो ' असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणिउस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ' इसप्रकार आगे कहे जानेवाले सूत्रसे असंख्यातासंख्यातका ग्रहण हो जाता है।
वह असंख्यातासंख्यात भी तीन प्रकारका है, जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्योत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात । इन तीनों में भी प्रकृतमें जघन्य असंख्यातासंख्यात नहीं है और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात भी नहीं है, किंतु प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण है, क्योंकि, 'जहां जहां असंख्यातासंख्यात देखा जाता है वहां वहां अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम असंख्यातासंख्यातका ही ग्रहण होता है,' ऐसा परिकर्मका वचन है।
“शंका-वह मध्यम असंख्यातासंख्यात भी असंख्यात विकल्परूप है, इसलिये यहां यह भेद लिया है, यह नहीं जाना जाता है ?
समाधान-जघन्य असंख्यातासंख्यातसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र वर्गस्थान ऊपर जाकर और जघन्य परीतानन्तसे असंख्यात लोकमात्र वर्गस्थान नीचे आकर दोनोंके
१ ति. प. पत्र ५२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org