SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 550
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, १६१.] दवपमाणाणुगमे दसणमग्गणाभागाभागपरूवणं [१५० णाणस्स वि दंसणमत्थि, तस्स वि तधाविधत्तादो । जदि सरूवसंवेदणं देसण तो एदेसि पि दसणस्स अत्थित्तं पसज्जदे चेन्न, उत्तरज्ञानोत्पत्तिनिमित्तप्रयत्नविशिष्टस्वसंवेदनस्य दर्शनत्वात् । ण च केवलिम्हि एसो कमो, तत्थ अक्कमेण णाण-दसणपउत्तीदो। ण च छदुमत्थेसु दोण्हमकमेण वुत्ती अत्थि, 'हंदि दुवे णत्थि उवजोगा' ति पडिसिद्धत्तादो। ण च णाणादो पच्छा दंसणं भवदि, 'दंसणपुव्वं णाणं, ण णाणपुव्वं तु दंसणमत्थि' इदि वयणादो। __ भागाभागं वत्तइस्सामो । सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा अचक्खुदसणमिच्छाइट्ठी होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा केवलदंसणिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणमिच्छाइद्विणो होति । सेसमसंखज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणिअचक्खुदंसणिअसंजदसम्माइट्ठिदव्वं होदि । तत्थ तस्सेव असंखेजदिभागमवणिदे ओहिदंसणिदव्वं होदि । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसम्मामिच्छाइट्ठिदव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइढिदव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा चक्खुदंसणि-अचक्खुदंसणिसंजदासंजददव्वं होदि । सेसमसंखेज्जखंडे कए ___शंका-यदि दर्शनका स्वरूप स्वरूपसंवेदन है, तो इन दोनों शानोंके भी दर्शनके अस्तित्वकी प्राप्ति होती है ? समाधान नहीं, क्योंकि, उत्तरमानकी उत्पत्ति के निमित्तभूत प्रयत्नविशिष्ट स्वसंवेदनको दर्शन माना है। परंतु केवलीमें यह क्रम नहीं पाया जाता है, क्योंकि, वहां पर अक्रमसे शान और दर्शनकी प्रवृत्ति होती है। छमस्थों में दर्शन और शान, इन दोनोंकी अक्रमसे प्रवृत्ति होती है, यदि ऐसा कहा जावे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, छन्नस्थोंके 'दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं। इस आगमवचनले छद्मस्थों के दोनों उपयोगोंके अक्रमसे होनेका प्रतिषेध हो जाता है। ज्ञानपूर्वक दर्शन होता है, यदि ऐसा कहा जावे सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, 'दर्शनपूर्वक शान होता है, किंतु ज्ञानपूर्वक दर्शन नहीं होता है। ऐसा आगसवचन है।। अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग अचक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग केवलदर्शनी जीव हैं । शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी असं. यतसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्य है। इसमेंसे इसीका असंख्यातवां भाग घटा देने पर शेष अवधिदर्शनी जीवोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग चक्षुदर्शनी और भचक्षुदर्शनी संयतासंयतोंका द्रव्यप्रमाण होता है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy