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________________ ७०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ६. ( अन्तर्मुहूर्तः । कुतः पूर्वनिपातः ? राजदन्तादित्वात् । कुतः ओत्वम् ? 'एए छच्च समाणा' इत्येतस्मात् ) एदेण सणक्कुमारादिगुणपडिवण्णाणमवहारकालाणं पि असंखेज्जावलियत्तं पसाहिये । एत्थ चोदगो भणदि । एदाओ रासीओ अवविदाओ ण होंति, हाणिवड्डिसंजुदत्तादो। ण च हाणिवड्डीओ णत्थि ति वोत्तुं सकिञ्जदे, आयव्ययाभावे मोक्खाभावादो अणादिअपज्जवसिदसासणादिगुणकालाणुवलद्धीदो च । जदि एदाओ रासीओ अवहिदाओ तो एदे भागहारा घडंति, अण्णहा पुण ण घडंति । अणवद्विदरासिभागहारेणापि अणवद्विदसरूवेणेव अवहाणा होति । एत्थ परिहारो वुच्चदे- सासणसम्माइद्विरासीणमुक्कस्ससंचयं है कि उक्त तीनों गुणस्थानोंकी संख्या लानेके लिये यदि अवहारकालका प्रमाण असंख्यात आवलियां मान लिया जाता है तो सूत्रमें आये हुए अन्तर्मुहूर्त प्रमाण भागहारके साथ उक्त असंख्यात आवलिप्रमाण भागहारका विरोध आता है, क्योंकि, उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्तमें संख्यात आवलियां ही होती हैं, असंख्यात नहीं । इस पर वीरसेनस्वामीने यह समाधान किया है कि यहां पर अन्तर्मुहूर्तमें आये हुए अन्तर् शब्दसे मुहूर्तके समीपवर्ती कालका ग्रहण करना चाहिये जिससे अन्तर्मुहर्तका अभिप्राय मुहूर्तसे अधिक भी हो सकता है। शंका - यहां पर अन्तर शब्दका पूर्व निपात कैसे हो गया है ? समाधान-क्योंकि, अन्तर शब्दका राजदन्तादि गणमें पाठ होनेसे पूर्वनिपात हो गया है। शंका--- अन्तर् शब्दमें अरके स्थानमें ओत्व कैसे हो गया है ? समाधान- 'एए छच्च समाणा' इस नियामक वचनके अनुसार यहां पर ओत्व हो गया है। इस उपर्युक्त कथनसे गुणस्थानप्रतिपन्न सानत्कुमार आदि कल्पवासी देवासंबन्धी अवहारकाल असंख्यात आवलीप्रमाण सिद्ध कर दिया गया । शंका- यहां पर शंकाकार कहता है कि ये उपर्युक्त जीवराशियां अवस्थित नहीं होती हैं, क्योंकि, इन राशियोंकी हानि और वृद्धि होती रहती है। यदि कहा जाय कि इन राशियोंकी हानि और वृद्धि नहीं होती है, सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, यदि इन राशियोंका आय और व्यय नहीं माना जाय तो मोक्षका भी अभाव हो जायगा। तथा अनादि अपर्यवसितरूपसे सासादन आदि गुणस्थानोंका काल भी नहीं पाया जाता है, इसलिये भी इन राशियोंकी हानि और वृद्धि मान लेना चाहिये। यदि इन उपर्युक्त राशियोंको अवस्थित माना जावे तो ये भागहार बन सकते हैं, अन्यथा नहीं, क्योंकि, अनवस्थित राशियोंके भागहारोंका भी अनवस्थितरूपसे ही सद्भाव माना जा सकता है ? समाधान-आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार किया जाता है। क्योंकि सासादन १ राजदन्तादिषु परम् । २।२।३१। पाणिनि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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