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________________ १, २, ६.] दव्वपमाणाणुगमे सासणसम्माइडिआदिपमाणपरूवणं [७१ तिकालगोयरमस्सिऊण जम्हा पमाणपरूवणं कदं तम्हा वड्डिहाणीओ णत्थि त्ति भागहारपरूवणं घडदि त्ति । सासणसम्माइटिअवहारकालेण वलिदोवमे भागे हिदे सासणसम्माइद्विरासी आगच्छदि । सासणसम्माइट्ठीणं पमाणपरूवणं वग्गट्टाणे खंडिद-भाजिद-विरलिदअवहिद-पमाण-कारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि वत्तइस्सामो । तं जहा पलिदोवमे असंखेज्जावलियमेत्तखंडे कए तत्थ एगखंडं सासणसम्माइद्विरासिपमाणं होदि । खंडिदं गदं । असंखेज्जावलियाहि पलिदोवमे भागे हिदे ज भागलद्धं ते सासणसम्माइहिरासिपमाणं होदि । भाजिदं गदं । असंखेज्जावलियाओ विरलेऊग एकेकस्स रूवस्स पलिदोवमं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडपमाणं सासणसम्माइहिरासी होदि । विरलिदं गदं। सासणसम्माइटिअवहारकालं सलागभूदं ठवेऊण सम्यग्दृष्टि आदि राशियोंके त्रिकालविषयक उत्कृष्ट संचयका आश्रय लेकर प्रमाण कहा गया है, इसलिये उस अपेक्षासे वृद्धि और हानि नहीं है। अतः पूर्वोक्त भागहारोंका कथन करना बन जाता है। सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालका पल्योपममें भाग देने पर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि आ जाती है। अब वर्गस्थानमें खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्पके द्वारा सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण कहते हैं। वह इसप्रकार है असंख्यात आवलीके समयोंका जितना प्रमाण हो उतने पल्योपमके खण्ड करने पर उनमेंसे एक खण्डके बराबर सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण होता है। इसप्रकार खण्डितका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण-पल्योपमप्रमाण ६५५३६ के सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकाल ३२ प्रमाण खण्ड करने पर २०४८ आते हैं। यही सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है। असंख्यात आवलियोंका पल्योपममें भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे उतना सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशिका प्रमाण है । इसप्रकार भाजितका कथन समाप्त हुआ। उदाहरण-६५५३६ : ३२ = २०४८ सासादनसम्यग्दृष्टि. . असंख्यात आवलियोंको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति पल्योपमको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण सासादनसम्यग्दृष्टि जीवराशि होती है। इसप्रकार विरलितका वर्णन समाप्त हुआ। उदाहरण–२०४८ २०४८ २०४८ इसप्रकार ३२ वार विरलित करके ६५५३६ को उक्त विरलित राशिके प्रत्येक एक पर समानरूपसे दे देने पर २०५८ सासादनसम्यग्दृष्टि राशि आ जाती है। सासादनसम्यग्दृष्टिविषयक अवहारकालको शलाकारूपसे स्थापित करके पल्योपममेंसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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