SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १०६. एत्थ ओघरासिणा संखेज्जत्तं पडि एदेसि रासीणं समाणत्ते संते किमट्ठमोघमिदि ण परूविदं सुत्ते ? ण, एत्थ अवलंबिदपज्जवट्ठियणयत्तादो। सो वि एत्थ किमट्ठमवलंबिजदे ? जोगद्धप्पाबहुगमस्सिऊण रासिविसेसपदुप्पायणटुं। क, जोगद्धप्पाबहुगमिदि वुत्ते वुच्चदे- 'सव्वत्थोवा सच्चमणजोगद्धा । मोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । सच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । असच्चमोसमणजोगद्धा संखेज्जगुणा । मणजोगद्धा विसेसाहिया । सच्चवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा। मोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । सच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । असच्चमोसवचिजोगद्धा संखेज्जगुणा । वचिजोगद्धा विसेसाहिया । कायजोगद्धा संखेज्जगुणा' त्ति'। वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, असंखेज्जा ॥ १०६॥ पूर्वोक्त आठ जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितनी हैं ? संख्यात हैं ॥ १०५।। यहां पर संख्यातत्वकी अपेक्षा प्रमत्तादि ओघराशिके साथ इन राशियोंकी समानता रहने पर सूत्र में 'ओघं' ऐसा किसलिये नहीं कहा? समाधान-नहीं, क्योंकि, यहां पर पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है, भतः सूत्रमें 'ओघं ' ऐसा नहीं कहा।। शंका-यह पर्यायार्थिक नय भी यहां पर किसलिये ग्रहण किया गया है ? समाधान-योगकालका आश्रय लेकर राशिविशेषका प्रतिपादन करनेके लिये यहां पर पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लिया गया है। योगकालके आश्रयसे अल्पबहुत्व किसप्रकार है, ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैंसत्य मनोयोगका काल सबसे स्तोक है। मृषामनोयोगका काल उससे संख्यातगुणा है। उभयमनोयोगका काल मृषामनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है । अनुभयमनोयोगका काल उभय मनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है। इससे मनोयोगका काल विशेष अधिक है। सत्य वचनयोगका काल मनोयोगके कालसे संख्यातगुणा है। मृषा वचनयोगका काल सत्य वचन. योगके कालसे संख्यातगुणा है। उभय वचनयोगका काल मृषा वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है । अनुभय वचनयोगका काल उभय वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है। वचनयोगका काल अनुभय वचनयोगके कालसे विशेष अधिक है । काययोगका काल वचनयोगके कालसे संख्यातगुणा है। वचनयोगियों और असत्यमृषा अर्थात् अनुभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ १०६ ॥ १ अंतोमुहुत्तमेत्ता चउमणजोगा कमेण संखगुणा । तज्जोगो सामण्णं चउपविजोगा तदो दु संस्खगुणा ।। वग्मोगो सामण्णं काओ संखाहदो तिजोगमिदं । गो. जी. २६२.२६३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy