________________
१, २, १४२.] दव्वपमाणाणुगमे णाणमग्गणापमाणपरूवणं सम्मादिहिणो अस्थि त्ति ओघमिच्छाइट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीहिंतो मदि-सुदअण्णाणमिच्छादिहि-सासणसम्मादिट्ठिणो ऊणा होति त्ति ओघपमाणमेदेसि णत्थि ति चे ण, मदिसुदअण्णाणिविरहिदविभंगणाणीणमणुवलंभादो तदो ओघमिदि सुह घडदे । एत्थ मदिसुदअण्णाणिमिच्छाइहिरासिस्स धुवरासी वुच्चदे। तं जहा- सिद्धतेरसगुणपडिवण्णरासिं मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइद्विरासिभजिदतव्यग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मदि-सुदअण्णाणिमिच्छाइट्ठिधुवरासी होदि । ओघसासणसम्माइटिअवहारकालो चेव मदि-सुदअण्णाणिसासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि।
विभंगणाणीसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवहि सादिरेयं ॥ १४२॥
देवमिच्छाइट्ठिणो णेरइयमिच्छाइट्ठिणो च सव्वे विहंगणाणिणो, विहंगणाणभवपञ्चयसमण्णिदत्तादो । तिरिक्खविहंगणाणिणो वि पदरस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता होता वि
- शंका-विभंगशानी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं, इसलिये ओघमिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे मत्यज्ञानी और श्रुताक्षानी मिथ्याष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कम हो जाते हैं, इसलिये इनके ओघप्रमाणका निर्देश नहीं बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मत्यज्ञानी और श्रुताशानियों को छोड़कर विभंगवानी जीव पृथक नहीं पाये जाते हैं, इसलिये इनका प्रमाण ओघप्ररूपणाके समान अच्छीतरह बन जाता है।
अब यहां पर मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवराशिकी ध्रुवराशिका कथन करते हैं। यह इसप्रकार है-सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानप्रतिपन्न राशिको तथा सिद्ध और तेरह गुणस्थान प्रतिपन्न राशिके वर्गमें मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि राशिका भाग देने पर जितना लब्ध आवे उसको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मत्यज्ञानी और श्रुताशानी मिथ्यादृष्टि जीवोंकी धुवराशि होती है। ओघसासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल ही मत्यशानी और श्रुताज्ञानी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है।
विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवासे कुछ अधिक हैं ॥ १४२ ॥
देव मिथ्यादृष्टि जीव और नारक मिथ्यादृष्टि जीध, ये सब घिभंगशानी होते हैं, क्योंकि, ये जीव भवप्रत्यय विभंगज्ञानसे युक्त होते हैं। तिर्यंच विभंगशानी जीव जगप्रतरके
-.....
१ विमंगहानिनो मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः । स. सि. १, ८. पल्लासंखघणंगुलहदसेदितिरिक्खगतिविमंगजुदा । णरसहिदा किंचूणाचदुगदिवेभंगपरिमाणं ॥ गो. जी. ४६३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org