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________________ १, २, ५२. ] दव्यमाणागमे मणुगदिपमाणपरूवणं [ २६३ भवदि । एत्थ पुण संभवो णेव इदि । परिहारो बुच्चदे | सुत्तेण विणा सेढी असंखेअजोयणकोडियमाणो होदि त्तिण जाणिजदे, तदो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढिपमाणमिदि जाणावणट्टमिदं वयणं । परियम्मादो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ सेढीए पमाणमवगदमिदि चे ण, एदस्स सुत्तस्स बलेण परियम्मपत्तदो । अहवा सेढीए असंखेदिभागो वि सेठी बुच्चदे, अवयविणामस्स अवयवे पवृत्तिदंसणादो । जहा गामेगदे से दद्धे गामो दद्ध इदि | अहवा एवं संबंधो कायव्वो । तिस्से सेठीए असंखेजदिभागस्स आयामो दत्तणं असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ होदि ति । अपज्जत्तएहि रूपक्खित्तएहि रूवा पक्खिएहि रूवं पक्खित्तएहिं तितिसु वि पादेसु रूवाहियपज्जत्तरासी पक्खिविदव्वो । पुणो हि वाहियमणुसपज्जत्तरासिमवणिदे मणुस्सापज्जत्ता होंति । अंगुलवग्गमूलं च तं तदियवग्गमूलगुणिदं च अंगुलवग्गमूलतादियवग्गमूलगुणिदं तेण सलागभूदेण सेढी अवहिरिज्जदित्ति जं वृत्तं होदि । है । व्यभिचारकी संभावना होने पर ही विशेषण फलवाला होता है । परंतु यहां पर तो उसकी संभावना ही नहीं है ? समाधान – आगे पूर्वोक्त शंकाका परिहार करते हैं । सूत्रके विना 'जगश्रेणी के असंख्यातवें भागरूप श्रेणी असंख्यात करोड़ योजनप्रमाण है ' यह नहीं जाना जाता है, अतः जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका प्रमाण असंख्यात करोड़ योजन है, इसका ज्ञान करानेके लिये उक्त वचन दिया है । शंका- जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम असंख्यात करोड़ योजन है, यह परिकर्म से जाना जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इस सूत्र के बलसे परिकर्म की प्रवृत्ति हुई है । अथवा, जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग को भी श्रेणी कहते हैं, क्योंकि, अवयवी के नामकी अवयव में प्रवृत्ति देखी जाती है । जैसे, ग्रामके एक भागके दग्ध होने पर ग्राम जल गया ऐसा कहा जाता है । अथवा, इसप्रकारका संबन्ध कर लेना चाहिये कि उस श्रेणीके असंख्यातवें aisi आयाम अर्थात् लंबाई असंख्यात करोड़ योजन है । ' अपज्जत्तरहि रुवपक्खित्तएहि रूवा पक्खित्तएहि रूवं पविखत्तएहि ' इन तीनों भी स्थानों में किसी भी वचनसे रूपाधिक पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रक्षेप करना चाहिये । पुनः लब्धमैसे रूपाधिक पर्याप्त मनुष्य राशि घटा देने पर लब्धपर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण होता है । सूच्यं प्रथ वर्गमूलको तृतीय वर्गमूल से गुणित करके जो लब्ध आवे शलाकारूप उस राशिसे जगश्रेणी अपहृत होती है, यह इस सूत्रका अभिप्राय है । विशेषार्थ - 1- सामान्य मनुष्यराशिके प्रमाण मेंसे पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण घटा देने पर लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण शेष रहता है। सूच्यंगुलके प्रथम और तृतीय वर्गमूलके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि आवे उससे जगश्रेणीको भाजित करके लब्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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