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________________ २६२) छक्खडागमे जीवाणं [१, २, ५०. हवदि । णवरि एत्तियं तेसि पमाणमिदि ण णवदे, संपहि उवएसाभावादो । मणुसअपज्जत्ता दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेना ॥५०॥ एत्थ णिव्यत्ति-अपजत्ते मोत्तूण लद्धि-अपज्जत्ताणं गहणं कायव्वं । कुदो ? एत्थ गुणपडिवण्णपमाणपरूवणाभावण्णहाणुववत्तीदो। सामण्णेण अवगद-असंखेज्जसविसेसपरूवणमुत्तरसुत्तमाह असंखेज्जासंखेज्जाहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि अवहिरंति कालेण ॥ ५१॥ एदस्स सुत्तस्स अत्थो पुव्वं बहुसो परूविदो त्ति पुणो ण वुच्चदे पुणरुत्तभएण । खेत्तेण सेढीए असंखेजदिभागो। तिस्से सेढीए आयामो असंखेज्जाओ जोयणकोडीओ। मणुस-अपउजत्तेहि रूवा पक्खित्तेहि सेढिमवहिरदि अंगुलवग्गमूलं तदियवग्गमूलगुणिदेण ॥५२॥ इदि एदं वयणं ण घडदे, फलाभावा । संते संभवे वियहिचारे च विसेसणमत्थवंतं आता है। परंतु इतनी विशेषता है कि उन सासादनसम्यग्दृष्टि आदि योनिमतियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस काल में इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं ॥ ५० ॥ यहां पर निर्वृत्यपर्याप्तकोंको ग्रहण न करके लब्ध्यपर्याप्तकोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके प्रमाणके प्ररूपणका अभाव अन्यथा बन नहीं सकता है । अपर्याप्त मनुष्य राशि असंख्यातरूप है यह बात सामान्यरूपसे तो जान ली, पर विशेषरूपसे उसका ज्ञान नहीं हुआ, अतः उस असंख्यातके विशेषरूपसे प्ररूपण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं कालकी अपेक्षा लब्धपर्याप्त मनुष्य असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहत होते हैं ॥५१॥ इस सूत्रका अर्थ पहले अनेकवार कह आये हैं, अतः पुनरुक्त दोषके भयसे पुनः नहीं कहते हैं। क्षेत्रकी अपेक्षा जगश्रेणीके असंख्यातवें भागप्रमाण लब्धपर्याप्त मनुष्य हैं । उस जगश्रेणीके असंख्यातवें भागरूप श्रेणीका आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। सूच्यंगुलके तृतीय वर्गमूल गुणित प्रथम वर्गमूलको शलाकारूपसे स्थापित करके रूपाधिक लब्धपर्याप्तक मनुष्योंके द्वारा जगश्रेणी अपहृत होती है ॥ ५२ ॥ शंका-~~यह सूत्र-वचन घटित नहीं होता है, क्योंकि, इस वचनका कोई फल नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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