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१, २, ८७.] दश्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३३१ सुहमेइंदियओगाहणाए वेदणखेत्तविहाणादो बहुत्तोवलभा । तदो पडिहम्ममाणसरीरो बादरो । अण्णेहि पोग्गलेहि अपडिहम्ममाणसरीरो जीवो सुहुमो त्ति घेत्तव्वं । एकमेकं प्रति प्रत्येकम्, प्रत्येकं शरीरं येषां ते प्रत्येकशरीराः । एत्थ पत्तेयसरीरणिद्देसो साहारणसरीरवणप्फइकाइयपडिसेहफलो । पुढविकाइयादओ जीवा पत्तेयसरीरा चेव । तेसिं पत्तेयववएसो सुत्ते किण्ण कदो ? तत्थ पत्तेयसरीरस्स संभवो चेव असंभवो णत्थि त्ति ण तेण ते विसेसिज्जते सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति 'इति न्यायात ) सुहुमणामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादओ जीवा सुहुमा हवंति । थोवसरीरोगाहणाए वट्टमाणा जीवा सुहुमा त्ति ण घेप्पंति, सुहुमेइंदियओगाहणादो बादरेइंदियओगाहणाए वेदणाखेत्तविहाणसुत्तादो थोवनुवलंभा। अपजतणामकम्मोदयसहिदपुढविकाइयादओ अपजत्ता ति घेत्तव्या णाणिप्पण्णसरीरा, पज्जत्तणामकम्मोदयअणिप्पण्णसरीराणं पि गहणप्पसंगादो । तहा पन्जत्तणामकम्मोदयवंतो जीवा पज्जत्ता । अण्णहा णिप्पण्णसरीरजीवाणमेव गहणप्पा
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंकी अवगाहना बड़ी पाई जाती है, इसलिये स्थूल शरीरवाले जीवोंको बादर नहीं कह सकते हैं। अतः जिनका शरीर प्रतिघातयुक्त है वे बादर हैं और अन्य पुद्गलोंसे प्रतिघातरहित जिनका शरीर है वे सूक्ष्म जीव हैं, यह अर्थ यहां पर बादर और सूक्ष्म शब्दसे लेना चाहिये।
___ एक एक जीवके प्रति जो शरीर होता है उसे प्रत्येक कहते हैं। जिन जीवोंका प्रत्येकशरीर होता है वे प्रत्येकशरीर जीव हैं। यहां सूत्रमें प्रत्येकशरीर ' पदका निर्देश साधारणशरीर वनस्पतिकायिकके प्रतिषेधके लिये किया है । पृथिवीकायिक आदि जीव प्रत्येकशरीर ही होते हैं।
शंका- सूत्रमें पृथिवीकायिक आदि जीवोंको प्रत्येक संज्ञा क्यों नहीं दी गई है?
समाधान-उन पृथिवीकायिक आदि जीवों में प्रत्येक शरीरका संभव ही है असंभव नहीं है, इसलिये प्रत्येक पदसे उन्हें विशेषित नहीं किया गया है, क्योंकि, व्यभिचारके होने पर, अथवा उसकी संभावना होने पर, दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है। . सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे युक्त पृथिवीकायिक आदि जीव सूक्ष्म होते हैं। यहां शरीरकी स्तोक अवगाहनामें विद्यमान जीव सूक्ष्म होते हैं, ऐसा अर्थ नहीं लिया गया है, क्योंकि वेदनाक्षेत्रविधानके सूत्रसे सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी अवगाहनाकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रियोंकी अवगाहमा भी स्तोक पाई जाती है । अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त बादर पृथिवीकायिक आदि जीव अपर्याप्त हैं, ऐसा अर्थ यहां पर लेना चाहिये । किंतु जिनका शरीर अभी निष्पन्न नहीं हुमा अर्थात् जिनकी शरीर-पर्याप्ति पूर्ण नहीं हुई है वे अपर्याप्त हैं, ऐसा अर्थ यहां नहीं लेना चाहिये, क्योंकि, ऐसा अर्थ लेने पर पर्याप्त नामकर्मका उदय रहते हुए भी जिनका शरीर पूर्ण नहीं हुआ है अपर्याप्त पदसे उनके भी ग्रहणका प्रसंग आ जाता है। उसीप्रकार पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त जीव पर्याप्त हैं, प्रकृतमें पर्याप्त पदसे ऐसा अर्थ लेना चाहिये, भन्यथा जिन जीवोंका शरीर निष्पन्न हो चुका है पर्याप्त पदसे उनका ही ग्रहण होगा।
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