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३१२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, २, ८७. संगा। बादर-सुहुमजीवेसु पंच-चउन्भेएसु तस्सेवेत्ति एगवयणगिद्देसो कधं घडदे? ण, तेसिं जादीए एगत्तसंभवादो। . एत्थ चोदगो भणदि । विम्गहगईए वट्टमाणवणप्फइकाइया कि पत्तेयसरीरा आहो साहारणसरीरा इदि ? किं चातः ? ण पत्तेयसरीरा, कम्मइयकायजोगे वट्टमाणवणप्फइकाइया अर्णता त्ति कट्ट वणप्फइकाइयपत्तेयसरीराणमणंतत्तप्पसंगा। ण च एवं सुत्ते, तेसिं असंखेज्जलोगमेत्तपमाणपदुप्पायणादो। ण ते साहारणसरीरा वि, तत्थ
साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च ।
साहारणजीवाणं साहारणलक्खणं भणिदं ॥ ७४ ।। इच्चादिगाहाहि वृत्तसाहारणलक्खणाणुवलंभादो। ण च पत्तेय-साहारणसरीरवदिरित्ता घणप्फइकाइया अत्थि, तहाविहोवएसाभावादो। तस्मात्प्रत्येकं शरीरं देहो येषां ते प्रत्येक शरीरा इत्येतन्न घटत इति ?
शंका-बादर जीव पांच प्रकारके और सूक्ष्म जीव चार प्रकारके होते हैं, अतः सूत्र में 'तस्सेष' इसप्रकार एकवचन निर्देश कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उन पांच प्रकारके बादर और चार प्रकारके सूक्ष्म जीवोंके जातिकी अपेक्षा एकत्व संभव है, इसलिये एकवचन निर्देश करने में कोई विरोध नहीं आता है।
शैका-यहां पर शंकाकार कहता है कि विग्रहगतिमें विद्यमान वनस्पतिकायिक जीव क्या प्रत्येकशरीर हैं या साधारणशरीर हैं ? यदि इस प्रश्नका फल पूछा जाय तो यह है कि वे जीव इन दोनों विकल्पोंमेंसे प्रत्येकशरीर तो हो नहीं सकते, क्योंकि, कार्मणकाययोगमें रहनेवाले वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होनेसे वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके अनन्तत्वका प्रसंग आ जाता है। परंतु सूत्रमें ऐसा है नहीं, क्योंकि, सूत्रमें वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंका असंख्यात लोकमात्र प्रमाण कहा है। उसीप्रकार वे जीव साधारणशरीर भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि, वहां पर
साधारण जीवोंका साधारण ही तो आहार होता है और साधारण श्वासोच्छासका प्रहण होता है । इसप्रकार आगममें साधारण जीवोंका साधारण लक्षण कहा है ॥ ७४॥
इत्यादि गाथाओंके द्वारा कहा गया साधारण जीवोंका लक्षण नहीं पाया जाता है। और प्रत्येकशरीर तथा साधारणशरीर इन दोनोंसे व्यतिरिक्त वनस्पत्तिकायिक जीव पाये नहीं जाते हैं, क्योंकि, इसप्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है । इसलिये 'जिनका देह प्रत्येक है वे प्रत्येकशरीर हैं' यह कथन घटित नहीं होता हैं ?
१ प्रतिषु ' संखेन्ज' इति पाठः। २ गो. जी. १९२.
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