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१, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं
एत्य परिहारो वुच्चदे। जेण जीवेण एक्केण चैव एक्कसरीरट्ठिएण सुह-दुःखमजुभवेदव्वमिदि कम्ममुवजिदं सो जीवो पत्चेयसरीरो । जेण जीवेण एगसरीरट्ठियकहहि जीवेहि सह कम्मफलमणुभवेयव्वमिदि कम्ममुवज्जिदं सो साहारणसरीरो । ण च अच्छिण्णाउअस्स तब्धवएसो, तत्र प्रत्यासत्तेरभावात् । विग्गहगईए पुण पच्चासत्ती अस्थि त्ति हवदि एसो ववएसो तम्हा ण पुव्वुत्तदोसस्स संभवो। अहवा पत्तेयसरीरणामकम्मोदयवंतो वणप्फइकाइया पत्त्यसरीरा । साहारणणामकम्मोदयवतो साहारणसरीरा त्ति वत्तव्वं । सरीरगहिदपढमसमए दोण्हं सरीराणमेगदरस्त उदओ हवदीदि विग्गहगईए वट्टमाणजीवाणं पत्तेयसाहारणसरीरववएसो ण पावदि त्ति वुत्ते, ण एस दोसो, तत्थ वि पच्चासत्ती अस्थि त्ति उवयारेण तेसिं पत्तेय-साहारणसरीरववएससंभवादो । विग्गहगईए वट्टमाणाणतजीवाण साहारणकम्मोदयपरवसाणमण्णोण्णाणुगयत्तणेण एयत्तमुवगयएयसरीरम्मि वट्टमाणत्तादो वा
समाधान - यहां पर उपर्युक्त शंकाका परिहार करते हैं । जिस जीवने एक शरीर में स्थित होकर अकेले ही सुख दुःखके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है वह जीव प्रत्येकशरीर है। तथा जिस जीवने एक शरीरमें स्थित बहुत जीवोंके साथ सुख-दुःखरूप कर्मफलके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव साधारणशरीर है। परंतु जिसकी आयु छिन्न नहीं हुई है, अर्थात् जो जीव अपनी पर्यायको छोड़कर प्रत्येक व साधारण पर्यायमें उत्पन्न नहीं हुआ है उस जीवके इसप्रकारका व्यपदेश नहीं हो सकता है, क्योंकि, वहां पर प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है। विग्रहगतिमें तो प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये वहां पर यह व्यपदेश होता है, अतएव यहां पूर्वोक्त दोष संभव नहीं है । अथवा, प्रत्येकशरीर नामकर्मके उदयसे युक्त वनस्पतिकायिक जीव प्रत्येकशरीर हैं और साधारण नामकर्मके उदयसे युक्त वनस्पतिकायिक जीव साधारणशरीर हैं, ऐसा कथन करना चाहिये।
शंका-शरीरं ग्रहण होने के प्रथम समय में दोनों शरीरों से किसी एकका उदय होता है, इसलिये विग्रहगतिमें रहनेवाले जीवोंके प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर, इन दोनों से कोई भी संज्ञा नहीं प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विग्रहगतिमें भी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, इसलिये उपचारसे उन जीवोंके प्रत्येकशरीर अथवा, साधारणशरीर संक्षा संभव है। अथवा, साधारण नामकर्मके उदयके आधीन हुए और विग्रहगतिमें विद्यमान हुए अनन्त जीव परस्पर अनुगत होनेसे एकत्वको प्राप्त हुए एक शरीर में रहते हैं, इसलिये घे प्रत्येकारीर नहीं हैं।
विशेषार्थ-वर्तमान भायुके समाप्त होने पर घर्तमान शरीरको छोड़कर उत्तर शरीरके ग्रहण करनेके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं। यहां विग्रहका भर्थशरीर है, इसलिये विग्रह अर्थात् शरीरके लिये जो गति होती है उसे विग्रहगति कहते हैं। इसके युगति, पाणिमुक्तागति, लांगलिकागाति और गोमूत्रिकागति इसप्रकार धार भेद है।
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