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________________ १५.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, २, ८७ ण ते पत्तेयसरीरा । एदे छब्बीसरासीओ दबपमाणेण असंखेजलोगमेत्ता हवंति। एत्थ विसेसपदुप्पायणोवायाभावादो काल-खेतेहि परूवणा ण कदा । (संपहि सुत्ताविरुद्धेणाइरियपरंपरागदोवएसेण तेउक्काइयरासिउप्पायणविहाणं वत्तइस्सामो ) तं जहा- एगं घणलोगं सलागभूदं ठविय अवरेगं घणलोगं विरलिय एक्केकस्स रूवस्स एकेकं घणलोग दाऊण वग्गिदसंवग्गिदं करिय सलागरासीदो एगरूवमवणेयव्वं । तांधे एक्का अण्णोण्णगुणगारसलागा' लद्धा हवदि । तस्सुप्पण्णरासिस्स पलिदोवमस्स इनमेंसे प्रथम गतिको छोड़कर शेष तीन गतियां विग्रह अर्थात् मोड़ेरूप हैं। जब वनस्पतिकायिक जीव ऐसी मोड़ेवाली गतिसे न्यूतन शरीरको ग्रहण करता है तब उसके एक, दो या तीन समयतक साधारण या प्रत्येक नामकर्मका उदय नहीं होता है, क्योंकि, प्रत्येक या साधारण नामकर्मका उदय शरीर ग्रहण करनेके प्रथम समयसे लगाकर होता है। इसी अभिप्रायको ध्यानमें रखकर शंकाकारने यह शंका की है कि जबतक वनस्पतिकायिक जीव विप्रहगतिमें रहता है तबतक उसके उक्त दोनों कर्मों से किसी भी कर्मका उद्य नहीं पाया जाता है, इसलिये उसकी साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर इन दोनों में किसी भी भेदमें गणना नहीं हो सकती है। इस शंकाका समाधान दो प्रकारसे किया गया है। एक तो यह कि यद्यपि विग्रह अर्थात् मोड़ेवाली गतिमें उक्त दोनों कर्मों से किसी कर्मका उदय नहीं पाया जाता है, यह ठीक है। फिर भी प्रत्यासत्तिसे ऐसे जीवको भी प्रत्येक या साधारण कह सकते हैं । अर्थात् ऐसा जीव एक दो या तीन समयके अनन्तर ही प्रत्येक या साधारण नामकर्मके उदयसे युक्त होनेवाला है, अतएव उपचारसे उसे प्रत्येक या साधारण कहने में कोई आपत्ति नहीं है। दूसरे विग्रहका अर्थ मोड़ा न लेकर शरीर ले लेने पर इषुगतिकी अपेक्षा विग्रहगतिमें अर्थात् न्यूतन शरीरके ग्रहण करनेके लिये होनेवाली गतिमें साधारण या प्रत्येक नामकर्मका उदय पाया ही जाता है, क्योंकि, इषुगतिसे उत्पन्न होनेवाला जवि आहारक ही होता है। - ये पूर्वोक्त छठवीस जीवराशियां द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा असंख्यात लोकप्रमाण हैं। यहां पर विशेषरूपसे प्रतिपादन करनेका कोई उपाय नहीं पाया जाता है, इसलिये काल और क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा इन छवास जीवराशियोंकी प्ररूपणा नहीं की। . अब सूत्राविरूद्ध आचार्य परंपरासे आये हुए उपदेशके अनुसार तेजस्कायिक जीव. राशिक प्रमाणके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते हैं। यह इसप्रकार है-एक घनलोकको शलाकारूपसे स्थापित करके और दूसरे घनलोकको विरलित करके उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति जनलोकको देयरूपसे देकर और परस्पर वर्गितसंवर्गित करके शलाकाराशिमेसे एक कम कर देना चाहिये। तब एक अन्योन्य गुणकार शलाका प्राप्त होती है। परस्पर . १ का गुणकारशलाका ? विरलनराशिमात्रतत्सर्वदयराशीनां । गुणितबाररूपा गो. नी. पृ. २४३. (पर्याप्ति अधिकार) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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