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३९६ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ११२. सासणादीणं सग-सगअवहारकाले संखेज्जरूवहि' खडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते कायजोगिसासणादिगुणपडिवण्णाणं अवहारकाला भवंति । एदे अवहारकाले आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे ओरालियकायजोगिसासणादीणमवहारकाला भवंति । कुदो ? तिरिक्ख-मणुस्सगुणपडिवण्णरासीणं देवगुणपडिवण्णरासिस्स असंखेजदिभागत्तादो। संजदासंजदाणं पुण कायजोगिअवहारकालो चेव ओरालियकायजोगिअवहारकालो होदि, तत्थ तव्यदिरित्तकायजोगाभावादो।
ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं ॥ ११२ ॥
एदं पि सुत्तं सुगमं । एत्थ धुवरासी उच्चदे । ओरालियकायजोगिधुवरासिं पुवं परूविदं संखेज्जरूवेहिं गुणिदे ओरालियमिस्सकायजोगिधुवरासी होदि । कुदो ? सुहुमेइंदियअपज्जत्तरासाए पज्जत्तरासिस्स संखेजदिभागत्तादो। तं जहा- तिरिक्ख-मणुसअपज्जत्तद्धादो पज्जत्तद्धा संखेज्जगुणा । ताणमद्धाणं समासेण तिरिक्खरासिं खंडिय
आदि गुणस्थानोंके अपने अपने अवहारकालको संख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी सामान्य अवहारकालमें मिला देने पर काययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों के अवहारकाल होते हैं। इन अवहारकालोको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर औदारिककाययोगी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीवोंके अवहारकाल होते है, क्योंकि, गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यंच और मनुष्य राशियां गुणस्थानप्रतिपन्न देवराशिके असंख्यातवें भागमात्र हैं। औदारिककाययोगकी अपेक्षा संयतासंयतोंका अवहारकाल ही औदारिककाययोगियोंका अवहारकाल है, क्योंकि, संयतासंयत गुणस्थानमें औदारिककाय. योगको छोड़कर और दूसरा कोई काययोग नहीं पाया जाता है।
औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥११२॥
यह सूत्र भी सुगम है। अब यहां ध्रुवराशिका कथन करते हैं- पहले जो औदारिक काययोगियोंकी ध्रुवराशि कह आये हैं उसे संख्यातसे गुणित करने पर औदारिकमिश्रकाययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है, क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त राशि पर्याप्त राशिके संख्यातवें भागमात्र है। उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है- तिर्यंच और मनुष्योंके अपर्याप्त कालसे पर्याप्त काल संख्यातगुणा है। पुनः उन कालोंके जोड़से तिर्यंच राशिको खंडित करके
१ प्रतिपुसंखेज्जरूवे' इति पाठः।
२ कम्मरालियमिस्सयओरालद्धासु संचिदअणंता। कम्मोरालियमिस्सयओरालि यजोगिणो जीवा । समय तयसंखाव लिसंखगुणावलिसमासहिदरासी । सगगुणगुणिदे थोवो असंखसंखाहदो कमसो॥ गो. जी. २६४-२६५.
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