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________________ १, २, १११.] दव्वपमाणाणुगमे जोगमग्गणापमाणपरूवणं [ ३९५ असच्चमोसमणजोगरासीओ हवंति । एवं वचिजोगरासिस्स वि वत्तव्वं । कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छाइट्ठी मूलोघं ॥११०॥ एदे दो वि रासीओ अणंता। अणंताणंताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण अवहिरंति कालेण । खेत्तेण अणंताणंता लोगा इदि वुत्तं होदि । सेसं सुगमं । सासणसम्माइट्टिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति जहा मणजोगिभंगो ॥ १११॥ एदं सुत्तं सुगमं । एत्थ धुवरासिविहाणं वुच्चदे। तं जहा- सगुणपडिवण्णमणजोगि-वचिजोगिरासिं सिद्ध-अजोगिरासिं च कायजोगिभजिद एदेसि वग्गं च सव्यजीवरासिम्हि पक्खित्ते कायजोगिधुवरासी होदि । तं पडिरासि काऊण तत्थेकरासिम्हि संखेजस्वेहि भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते ओरालियकायजोगिधुवरासी होदि । मनोयोगी और अनुभय मनोयोगी जीवराशियां होती हैं। इसीप्रकार वचनयोगी जीवराशिका भी कथन करना चाहिये। काययोगियों और औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि जीव सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ ११०॥ उपर्युक्त ये दोनों भी राशियां अनन्त हैं । कालकी अपेक्षा काययोगी और औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोंके द्वारा अपहृत नहीं होते हैं और क्षेत्रकी अपेक्षा अनन्तानन्त लोकप्रमाण हैं, यह इस कथनका तात्पर्य है। शेष कथन सुगम है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर सयोगिकेवली गुणस्थानतक काययोगी और औदारिककाययोगी जीव मनोयोगियोंके समान हैं ॥ १११ ॥ यह सूत्र सुगम है। अब यहां पर ध्रुवराशिकी विधिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न मनोयोगिराशि, वचनयोगिराशि, सिद्धराशि और अयोगि. राशिको तथा इन चारों राशियोंके वर्गमें काययोगिराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे सर्व जीवराशिमें मिला देने पर काययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है। अनन्तर इसकी प्रतिराशि करके उनमेंसे एक राशिमें संख्यातका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी ध्रुषराशिमें मिला देने पर औदारिककाययोगियोंकी ध्रुवराशि होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि १ काययोगिषु मिथ्यादृष्टयोऽनन्तामन्ताः । स. सि. १, ४. प्रदूणा संसारी एक्कजोगा हु। गो. जी: २६१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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