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________________ १, २, १५४.] दव्यपमाणाणुगमे संजममग्गणाभागाभाग-अप्पाबहुगपरूवणं [१५१ अवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे। तं जहा-सिद्ध-तेरसगुणपडिवण्णरासिं मिच्छाइद्विरासिभजिदतव्वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मिच्छाइविधुवरासी होदि । सासणादीणमवहारकालुप्पत्ती ओघसमाणा । एवं संजदासजदाणं पि । भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्वजीवरासिमणंतखंडे कए बहुखंडा मिच्छाइडिणो होति । सेसमणतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा होति । सेसमसंखेज्जखंड कए बहुखंडा असंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा सम्मामिच्छाइट्टिणो होति। सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा सासणसम्माइटिणो होति । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा संजदासजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे' कए बहुखंडा सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा होति । सेसं संखेज्जखंडे कए बहुखंडा जहाक्खादसुद्धिसंजदा होति । सेस संखेज्जखंडे कए बहुखंडा परिहारया होति । (सेसेगखंडं सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा होति ।) अप्पाबहुगं तिविहं सत्थाणादिभेएण । तत्थ सत्थाणे पयदं । संजदाण सत्थाणं णत्थि, अवहाराभावादो । मिच्छाइट्ठीणं पि सत्थाणं णत्थि, रासीदो भागहारस्स बहुत्तादो। सासणसम्माइद्विमादि करिय जाव संजदासजदा त्ति एदेसि सत्थाणस्स ओघभंगो । ........................................... कहते हैं। वह इसप्रकार है-सिद्धराशि और सासादनसम्यग्दृष्टि आदि तेरह गुणस्थानवी राशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित सिद्ध और तेरह गुणस्थानवर्ती राशिके धर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मिथ्यादृष्टिशशिकी धुवराशि होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके अवहारकालोंकी उत्पत्ति ओघ सासादनसम्यग्दष्टि आदि अवहारकालोंकी उत्पत्तिके समान है। इसीप्रकार संयतासंयतोंके अवहारकालकी उत्पत्ति भी समझना चाहिये । भव भागाभागको बतलाते हैं-सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर बहुभाग मिथ्याइष्टि जीव होते है। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग सिद्ध जीव होते है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग असंयतसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सम्यग्मिथ्याडष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग सासादनसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहभाग संयतासंयत जीव होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग यथाख्यातशुद्धिसंयत होते हैं। शेष एक भागके संख्यात खंड करने पर बहुभाग परिहारविशुद्धिसंयत होते हैं। (शेष एक भाग सूक्ष्मसांपरायिकशुद्धिसंयत हैं।) स्वस्थान अल्पबहुत्व आदिके भेदसे अल्पबहुत्व तीन प्रकारका है। उनमेंसे यही स्वस्थान अस्पबहुस्व प्रकृत है- संयत जीवोंके अघहारकालका अभाव होनेसे स्वस्थान अल्पबत्व महीं पाया जाता है। मिथ्याष्टियों के भी स्वस्थान अल्पबहत्व नहीं है, क्योंकि. मिथ्यादृष्टि राशिले भागहार बहुत बड़ा है। सालादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक इन जीवोंका स्वस्थान अल्पबहुत्वसामान्य स्वस्थान अल्पबहुत्वके समान है। प्रतिषु · सेसमसंखेज्जखंडे ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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