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________________ [३३८ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, ८७. वर अण्णोण्णगुणगारसलागा तेउक्काइयरारासिवग्गस लागाहिंतो असरखेज्जगुणत्तं पत्ताओ । कुदो ? तेक्वाइयरासिस्स अच् छेदणयसलागापढमवग्गमूलादो असंखेखगुणत्तादो । ण च एदमिच्छज्जदे । कुदो १ तेउक्काइयरासिवग्गस लागादो तस्स असंखेजगुणहीणत्तादो । तं कथं वदे ? परियम्मवयणाद। । तं जहा - तेउकाइयरासिस्स अण्णोष्णगुणगारसलागा वग्गजमाणा वग्गजमाणा असंखेज्जे लोगे वग्गे हेट्ठादो उवरिमसंखेज्जगुणं गंतूण तेउक्काइयरासिस्स वग्गसलागं पावदि ति । एस विलिदरासी ण वग्गसमुट्ठिदो वि । कुदो ! लोगछेदणयच्छिणते उक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणयमेत तादो । विरलिद - दिण्णमासीणं समानत्तणेण ते उक्काइयरासिस्स घणाघणधारासमुप्पण्णत्तणेण च तेउक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणयसलागाओ ण वग्गसमुट्ठिदाओ त्ति १ ण एदं, इत्ताद। । ण च परियम्मेण सह - विरोहो, तस्स तदुद्देसपदुप्पायने वावारादो। एत्थ पुण अधुट्टवारमेत्ताओ चैव तेउका अन्योन्य गुणकार शलाकाओंके प्रमाणरूप होती है । पर इस मतमें इतना विशेष है कि अन्योन्य गुणकार शलाकाएं तेजस्कायिक राशिकी वर्गशलाकाओंसे असंख्यातगुणी हो जाती हैं, क्योंकि, इसप्रकार जो अन्योन्य गुणकार शलाकाएं उत्पन्न होती हैं वे तेजस्कायिक राशिकी अर्धच्छेदशलाकाओंके प्रथम वर्गमूलसे असंख्यातगुणी हो जाती हैं । लेकिन यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, तेजस्कायिक राशिकी वर्गशलाकाओंसे अन्योन्य गुणकार शलाकाराशि असंख्यातगुणी हीन है । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - परिकर्मके वचनसे जाना जाता है । उसका स्पष्टीकरण इसप्रकार हैतेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाओंको उत्तरोत्तर वर्गित करते हुए असंख्यात लोकप्रमाण अर्थात् अधस्तन वर्गोंसे ऊपर असंख्यातगुणे जाकर तेजस्कायिकराशिकी वर्गशलाकाएं प्राप्त होती हैं । दूसरे यह विरलित राशि, अर्थात् गुणकाररूपसे प्रवेशको प्राप्त होनेवाले लोकोंकी जितनी शलकाएं हों वह राशि, वर्गसमुत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, वह लोकके अर्धच्छेदोंसे छिन्न तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदप्रमाण है । शंका - विरलितराशि और देयराशि समान होनेसे और तेजस्कायिकराशि घनाघनधारा उत्पन्न हुई होनेसे तेजस्कायिकराशिकी अर्धच्छेदशलाकाएं भी तो वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं। समाधान - पर यह कोई बात नहीं है, क्योंकि, यह बात हमें इष्ट है । और इसतरह परिकर्म के साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि, परिकर्मका उसके उद्देशमात्र के प्रतिपादन करनेमें व्यापार होता है । यहां पर तो केवल तेजस्कायिकराशिकी साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य १' लोगद्धछदणयच्छेण्णं तेउ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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