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________________ १, २, ८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवर्ण [३१७ गुणगारसलागा चउत्थवारं दृविदसलागरासिपमाणं होदि । (के वि आइरिया सलागरासिस्स अद्धे गदे तेउक्काइयरासी उप्पजदि ति भणति । के वि तं णेच्छंति ) कुदो ? अद्भुट्ठरासिसमुदयस्स वग्गसमुट्ठिदत्ताभावादो । तेउक्काइयअण्णोण्णगुणगारसलागा वग्गसमुद्विदा ति कधं जाणिजदे ? परियम्मवयणादो । के वि आइरिया एवं भणंति। जहा- एसो रासी तेउक्काइयरासिस्स गुणगारसलागपमाणं ण भवदि। पुणो को होदि ति वुत्ते वुच्चदे-गुणेजमाणस्स लोगस्स गुणगारसरूवेण पवेसमाणलोगाणं जाओ सलागाओ ताओ तेउक्काइयअण्णोण्णगुणगारसलागा वुच्चंति । एदाओ वग्गसमुट्टिदाओ ण पुचिल्लाओ त्ति । तम्हा अधुदुगुणगारसलागोवएसो विरुज्झदे, एसो ण विरुज्झदे इदि । एवं पि ण घडदे । कुदो ? लोगद्धछेयणएहिं तेउक्काइयरासिस्स अद्धच्छेदणए भागे हिदे जं लद्धं तं विरलिय एक्केक्कस्स रूवस्स घणलोगं दाऊणण्णोण्णब्भत्थे कदे तेउकाइयरासी उप्पज्जदि । हेडिल्लविरलिदराती वि तेउकाइयअण्णोण्णगुणगारसलागपमाणं भवदि । राशि उत्पन्न होती है। उस तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं चौथीवार स्थापित अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिप्रमाण हैं। कितने ही आचार्य चौथीवार स्थापित शलाकाराशिके आधे प्रमाणके व्यतीत होने पर तेजस्कायिक जीवराशि उत्पन्न होती है, ऐसा कहते हैं। परंतु कितने ही आचार्य इस कथनको नहीं मानते हैं, क्योंकि, साढ़े तीनवार राशिका समुदाय वर्गधारामें उत्पन्न नहीं है। शंका-यह ठीक है कि हूठवार (साढ़े तीनवार) राशिका समुदाय वर्गोत्पन्न नहीं है, पर तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं वर्गधारामें उत्पन्न हैं, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-उक्त आचार्योंके मतमें यह बात परिकर्मके वचनसे जानी जाती है। कितने ही आचार्य इसप्रकार कहते हैं कि यह पूर्वोक्त राशि (इठवार राशि) तेजस्कायिक राशिकी गुणकार शलाकाराशिके प्रमाणरूप नहीं है । फिर कौनसी राशि तेजस्कायिक राशिकी गुणकार शलाकाराशिके प्रमाणरूप है, ऐसा पूछने पर वे कहते हैं कि गुण्यमान लोकके गुणकाररूपसे प्रवेशको प्राप्त होनेवाले लोकोंकी जितनी शलाकाएं हों उतनी तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं कही जाती हैं। ये अन्योन्य गुणकार शलाकाएं वर्गमें उत्पन्न हुई हैं पहलेकी अर्थात् साढ़े तीनवार राशिरूप नहीं, इसलिये हठवार राशिप्रमाण गुणकारशलाकाओंका उपदेश विरोधको प्राप्त होता है, यह उपदेश नहीं। परंतु इसप्रकारका कथन भी घटित नहीं होता है, क्योंकि, लोकके अर्धच्छेदोंसे तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे विरलित करके और उस विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति घनलोकको देयरूपसे देकर परस्पर गुणा करने पर तेजस्कायिक राशि उत्पन्न होती है और अधस्तन विरलित राशि भी तेजस्कायिक राशिकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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