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________________ १,२,८७.] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवर्ण इयरासिअण्णोण्णगुणगारसलागाओ त्ति घेत्तव्वं, आइरियपरंपरागओवएसत्तादो । ण च वग्गसमुट्ठिदत्तं गुणगारसलागाणं णत्थि त्ति अद्भुट्ठवएसो ण भद्दओ, अद्भुट्ठवएसण्णहाणुववत्तीदो चेव तदवग्गसमुद्विदत्तस्स अवगमादो । ण परियम्मदो वग्गतसिद्धी, तस्स तेउक्काइयअद्धच्छेदणएहि अणेयंतियत्तादो । अहवा तेउक्काइयरासिस्स अण्णोण्णगुणगारसलागाओ सलागभूदाओ द्वविऊग ........................... गुणकार शलाकाएं होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि, आचार्य परंपरासे इसीप्रकारका उपदेश आ रहा है। गुणकार शलाकाएं वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं, इसलिये साढ़े तीनवारका उपदेश ठीक नहीं है, सो बात भी नहीं है, क्योंकि, साढ़े तीनवारका उपदेश अन्यथा बन नहीं सकता है, इसीसे गुणकार शलाकाएं वर्गसमुत्पन्न नहीं हैं, यह बात जानी जाती है। परिकर्मसे इनके वर्गत्वकी भी सिद्धि नहीं होती है, क्योंकि, इसका तेजस्कायिक राशिके अर्धच्छेदोंके साथ अनेकान्त है। विशेषार्थ-यहां पर तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकारशलाकाएं कितनी हैं, इस विषयमें आचार्य परंपराले आये हुए मतके अतिरिक्त दो और मतोंका उल्लेख किया गया है। घनलोकको लेकर विरलन, देय और शलाकाक्रमसे तीसरीवार शलाकाराशिके समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसमेंसे पहली, दूसरी और तीसरी शलाकाराशिके घटा देने पर शेष राशिको शलाका मान कर साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका प्रमाण आ जाता है। यह मत आचार्य-परंपरासे आया हुआ होनेसे प्रमाण है। दूसरा मत यह है कि तीसरीवार शलाकाराशिके समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसके आधे प्रमाणको शलाकारूपसे स्थापित करना चाहिये तब जाकर साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका प्रमाण होता है। पर कितने ही आचार्य इस मतका विरोध करते हैं। उनके मतसे यह साढ़े तीन राशिवार अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिका उपदेश वर्गसमुत्पन्न नहीं है, इसलिये प्रमाणभूत नहीं है। तेजस्कायिक राशिकी अन्योन्य गुणकार शला. काएं वर्गोत्पन्न हैं इस मतकी पुष्टि वे आचार्य परिकर्मके आधारसे करते हैं। कितने ही आचार्य ऐसा कथन करते हैं कि जितने लोकप्रमाणराशिके प्रत्येक एक पर लोकको स्थापित करके परस्पर गुणित करनेसे तेजस्कायिकराशि उत्पन्न होती है उतने लोकप्रमाणराशि तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाएं होती हैं। इन्हें वे वर्गसमुत्पन्न भी मानते हैं। पर वीरसेनस्वामीने दूसरे मतके समान इस मतको भी प्रमाणभूत नहीं माना है, क्योंकि, इसप्रकार अन्योन्य गुणकार शलाकाओंका जो प्रमाण प्राप्त होता है वह तेजस्कायिकराशिकी वर्गशलाकाराशिसे असंख्यातगुणा हो जाता है । पर क्रमानुसार अन्योन्य गुणकार शलाकाराशिसे वर्गशलाकाराशि असंख्यातगुणी होनी चाहिये। अथवा, तेजस्कायिकराशिकी अन्योन्य गुणकार शलाकाओंको शलाकारूपसे स्थापित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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