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मूडबिद्रीका इतिहास
मूडबिद्री पंडित लोकनाथजी शास्त्रीने मूडबिद्रीका निम्न इतिहास लिखकर भेजनेकी कृपा की है। कनाड़ी भाषामें बांसको 'बिदिर' कहते हैं। बांसोंके समूह को छेदकर यहांके सिद्धान्त मंदिरका पता लगाया गया था, जिससे इस ग्रामका 'बिदुरे' नाम प्रसिद्ध हुआ। कनाड़ीमें 'मूड' का अर्थ पूर्व दिशा होता है, और पश्चिम दिशाका वाचक शब्द 'पडु' है । यहाँ मूल्की नामक प्राचीन ग्राम पडुबिदुरे कहलाता है, और उससे पूर्व में होने के कारण यह ग्राम मूडबिदुरे या मूडबिदिरे कहलाया । वंश और वेणु शब्द बांस के पर्यायवाची होनेसे इसका वेणुपुर अथवा वंशपुर नामसे भी उल्लेख किया गया है । अनेक व्रती साधुओं का निवासस्थान होनेसे इसका नाम व्रतिपुर या व्रतपुर भी पाया जाता है ।
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यहां की गुरुबसदि अपरनाम सिद्धान्त बसदि के सम्बधर्मे यह दंतकथा प्रचलित है। कि लगभग एक हजार वर्ष पूर्व यहांपर बांसों का सघन वन था । उस समय श्रवणबेलगुल ( जैन बिद्री) से एक निर्बंथ मुनि यहां आकर पडुबस्ती नामक मंदिरमें ठहरे । पडुबस्ती नामक प्राचीन जिनमंदिर अब भी वहां विद्यमान है, और उस मंदिरसे सैकड़ों प्राचीन ग्रंथ स्वर्गीय भट्टारकजीने मठमें विराजमान किये हैं । एक दिन उक्त निर्बंथ मुनि जब बाहर शौचको गये थे तब उन्होंने एक स्थानपर एक गाय और व्याघ्रको परस्पर क्रीडा करते देखा, जिससे वे अत्यन्त विस्मित होकर उस स्थानकी विशेष जांच पड़ताल करने लगे । उसी खोजबीन के फलस्वरूप उन्हे एक बांसके भिरेमें छुपी हुई व पत्थरों आदिसे घिरी हुई पार्श्वनाथ स्वामीकी काले पाषाणकी नौ हाथ प्रमाण खड्गासन मूर्तिके दर्शन हुए। तत्पश्चात् जैनियोंकेद्वारा उसका जीर्णोद्धार कराया गया, और उसी स्थानपर 'गुरुबसदि का निर्माण हुआ । उक्त मूर्ति पादपीठ पर उसके शक ६३६ (सन् ७१४ ) में प्रतिष्ठित किये जानेका उल्लेख पाया जाता
उसके आगेका गद्दीमंडप ( लक्ष्मी मंडप ) सन् १५३५ में चोलसेठीद्वारा निर्मापित किया गया था । इस बसदिके निर्माण का व्यय छह करोड रुपया कहा जाता है जिसमें संभवत: वहां की रत्नमयी प्रतिमाओं का मूल्य भी सम्मिलित होगा । इस मन्दिरके गुप्तगृहमें सुवर्णकलशों में
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सिद्ध रस ' स्थापित है, ऐसा भी कहते हैं ।
एक किंवदन्ती है कि होय्शल- नरेश विष्णुवर्धनने सन् १९१७ में वैष्णव धर्म स्वीकार करके लेबीडु अर्थात् दोरसमुद्र में अनेक जिन मन्दिरोंका ध्वंस कर डाला, व जैनधर्मपर अनेक अभ्य अत्याचार किये। उसी समय एक भयंकर भूकंप हुआ और भूमि फटकर एक विशाल गर्त वहां उत्पन्न होगया, जिसका संबंध नरेशके उक्त अत्याचारोंसे बतलाया जाता है । उनके उत्तराधिकारी नारसिंह और उनके पश्चात् वीर बल्लालदेवने जैनियोंके क्षोभको शान्त करनेके लिये नये मन्दिरोंका निर्माण, जीर्णोद्धार, भूमिदान आदि अनेक उपाय किये । वीर बल्लालदेवने तो अपने राज्यमें शान्तिस्थापना के लिये श्रवणवेलगुलसे भट्टारक चारुकीर्तिजी पंडिताचार्यको आमंत्रित किया । वे दोरसमुद्र
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