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षटखंडागमकी प्रस्तावना पहुंचे और उन्होंने अपनी विद्या व बुद्धि के प्रभावसे वहांका सब उपद्रव शान्त किया, जिससे जैनधर्मकी अच्छी प्रभाक्ना हुई। इसका कुछ उल्लेख विळगीके शासन लेखमें भी पाया जाता है, जो इस प्रकार है-- "कर्णाटक-सिद्धसिंहासनाधीश्वर-बल्लालरायं प्रार्थिसे श्री चारुकीर्तिपंडिताचार्यर् इंतु कीर्तियं पडेदर"
तिवें रायननेंदु नेलंबारिवडे तन मंत्रनपविधियिनदं॥ कुंबलकायिं सूळदु य
शं बडे देसकक्के पंडितार्यने नोंतं ॥ दोरसमुद्रसे चारुकीर्तिजी महाराज अपने शिष्योंसहित मूडबिद्री आये और उन्होने वहां गुरुपीठ ( भट्टारक गद्दी ) स्थापित की, यहां आते समय उन्होंने पासही नल्लूर प्राममें भी भट्टारक गदी स्थापित की थी, किन्तु वर्तमानमें वहां कोई अग भारक नहीं हैं, वहांके मठका सब प्रबन्ध मूडबिद्री मठसे. ही होता है । यह मूडबिद्रीमें भट्टारक गद्दी स्थापित होनेका इतिहास है, जिसका समय सन् ११७२ ईस्वी बतलाया जाता है। तबसे भट्टारकोंका नाम चारुकीर्ति ही रखा जाता है, यद्यपि उसके साथ साथ कुछ स्वतंत्र नामों, जैसे वर्धमानसागर, अनन्तसागर, नेमिसागर आदिका भी उल्लेख पाया जाता है । धवलादि सिद्धान्त ग्रंथोंकी प्रतियां यहां धारवाड जिलेके बंकापुरसे लाई गईं, ऐसी भी एक जनश्रुति है। इस मठसे दक्षिण कर्नाटकमें जैनधर्मका खूब प्रचार व उन्नति हुई । वर्तमानमें मठकी संपत्तिसे वार्षिक आय लगभग दस हजारकी है।'
३ महाबंधकी खोज
१ खोजका इतिहास षट्खंडागमका सामान्य परिचय उसके प्रथम दो भागोंमें प्रकाशित भूमिकाओंमें दिया जा चुका है। वहां हम बतला आये हैं कि धरसेनाचार्यसे आगमका उपदेश पाकर पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योने उसकी छह खंडोंमें ग्रन्थरचना की, जिनमेंसे प्रथम पांच खंड उपलब्ध श्रीधवलकी प्रतियोंके अन्तर्गत पाये जाते हैं और छठे खंड महाबन्धके सम्बन्धमें धवल तथा जयधवल में यह सूचना पाई जाती है कि महाबंध स्वयं भूतबलि आचार्यका रचा हुआ ग्रन्थ है, उसमें बंधविधानके चार प्रकारों प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का खूब विस्तारसे वर्णन किया गया है, तथा यह वर्णन इतना विशद और सर्वमान्य हुआ कि यतिवृषभ और वीरसेन जैसे आचार्योंने अपनी अपनी ग्रन्थरचनामें उसकी सूचनामात्र दे देना पर्याप्त समझा; उस विषयपर और कुछ विशेष कहनेकी उन्हें गुंजायश नहीं दिखी।
१ देखो लोकनाथशास्त्रीकृत मूडबिद्रेय चरित (कनाड़ी). देखो प्रथम भाग, भूमिका पू. ६३ आदि, व द्वि. भाग भूमिका पृ. १५ आदि.
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