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________________ १, २, ८.] दव्वपमाणाणुगमे अप्पमत्तसंजदपमाणपरूवणं [८९ करणटुं। पुधत्तमिदि तिण्हं कोडीणमुवरि णवण्हं कोडीणं हेढदो जा संखा सा घेत्तवा । सा अणेगवियप्पादो इमा होदि त्ति ण जाणिजदे ? ण, परमगुरूवदेसादो जाणिजदे । तत्थ पमत्तसंजदा णं पंच कोडीओ तेणउदिलक्खा अट्ठाणउदिसहस्सा छउत्तरं विसदं च ५९३९८२०६ । एदमेत्तियं होदि त्ति कधं णव्वदे ? आइरियपरंपरागदजिणोवदेसादो। अप्पमत्तसंजदा दवपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥८॥ जदि वि एवं संखेज्जा इदि वयणं सव्वसंखेज्जवियप्पाणं साहारण हवदि तो वि कोडिपुधत्तं ण पूरेदि त्ति णवदे । तं कधं? पुध सुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो, 'पमत्तद्धादो अप्पमत्तद्धा संखेज्जगुणहीणो' त्ति सुत्तादो वा । अप्पमत्तसंजदाणं पमाणं गुरूवदेसादो वुचदे। दो कोडीओ छण्णउदिलक्खा णवणउदिसहस्सा तिरहियसयं च । अंकदो वि एत्तिया हवंति २९६९९१०३ । वुत्तं च शंका-पृथक्त्व इस पदसे तीन कोटिके ऊपर और नौ कोटिके नीचे जितनी संख्या है, वह लेना चाहिये । परंतु वह मध्यकी संख्या अनेक विकल्परूप होनेसे यही संख्या यहां ली गई है यह नहीं जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, यह परम गुरुके उपदेशसे जाना जाता है। उसमें प्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण पांच करोड़ तेरानवे लाख अट्ठानवे हजार दोसौ छह ५९३९८२०६ है। शंका-यह संख्या इतनी है यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्यपरंपरासे आये हुए जिनेन्द्रदेवके उपदेशसे यह जाना जाता है कि यह संख्या इतनी ही है। ___ अप्रमत्तसंयत जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ ८॥ यद्यपि सूत्र में आया हुआ ‘संखेजा' यह वचन, संख्यात संख्याके जितने भी विकल्प हैं, उनमें समानरूपसे पाया जाता है तो भी वह कोटिपृथक्त्वको पूरा नहीं करता है, अर्थात् यहां पर कोटिपृथक्त्वसे नीचेकी संख्या इष्ट है, यह जाना जाता है। शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-यहां पर पूर्वोक्त अर्थ इष्ट न होकर यदि कोटिपृथक्त्वरूप अर्थ ही इष्ट होता तो अलगसे सूत्र बनानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। अथवा, 'प्रमत्तसंयतके कालसे अप्रमत्तसंयतका काल संख्यातगुणा हीन है' इस सूत्रसे भी जाना जाता है कि यहां पर कोटिपृथक्त्वरूप अर्थ इष्ट नहीं है। अब गुरूपदेशसे अप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण कहते हैंअप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण दो करोड़ छयानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन ...... ......." १ अप्रमत्तसंयताः संख्येयाः। स. सि. १, ८. तिरधियसयणवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त वे कोडी। गो जी. ६२५, कोडीसहस्सपुहुत्तं पभत्तइयरे उ थोवयरा । पञ्चसं. २. २२. ........... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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