________________
९.]
छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, २, ९. तिगहिय-सद णवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त त्रे कोडी।
पंचेव य तेणउदी णवह विसया छउत्तरा चेय ॥ ११ ॥ अप्पमत्तदव्वादो पमत्तदव्वं केण कारणेण दुगुणं ? अपमत्तद्धादो पमत्तद्धाए दुगुणसादो।
चदुण्हमुवसामगा दव्वपमाणेण केवडियाः पवेसेण एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कस्सेण चउवणं ॥ ९ ॥
एगेगगुणट्ठाणम्हि एगसमयम्हि चारित्तमोहणीयमुवसामेंतो जहण्णेण एगो जीवो पविसइ, उक्कस्सेण चउवण्ण जीवा पविसंति । एदं सामण्णदो भवदि । विसेसदो पुण अह-समयाहिय-वासपुधत्तम्भंतरे उवसमसेढिपाओग्गा अह समया हवंति । तत्थ पढमसमए एगजीवमाई कादूण जा उक्कस्सेण सोलस जीवा त्ति उवसमसे ढिं चति । विदियसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण चउवीस जीवा त्ति उवसमसेटिं चडंति । तदियसमए एगजीवमाई काऊण जा उक्कस्सेण तीस जीवा त्ति उवसमसेटिं चडंति । चउत्थसमए एगजीवमाइं काऊण जा उक्कस्सेण छत्तीस जीवा त्ति उवसमसेढिं चडंति ।
है। अंकोसे भी अप्रमत्तसंयत २९६९९१०३ इतने ही हैं। कहा भी है
प्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण पांच करोड़ तेरानवे लाख अट्ठानवे हजार दोसौ छह है और अप्रमत्तसंयत जीवोंका प्रमाण दो करोड़ छयानवे लाख निन्यानवे हजार एकसौ तीन है॥४१॥
शंका-अप्रमत्तसंयतके द्रव्यसे प्रमत्तसंयतका द्रव्य किस कारणसे दूना है ? समाधान-क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके कालसे प्रमत्तसंयतका काल दुगुणा है।
चारों गुणस्थानोंके उपशामक द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? प्रवेशकी अपेक्षा एक या दो अथवा तीन और उत्कृष्टरूपसे चौवन होते हैं ॥ ९ ।
__ उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें एक समयमें चारित्रमोहनीयका उपशम करता हुआ जघन्यसे एक जीव प्रवेश करता है और उत्कृष्टरूपसे चौवन जीव प्रवेश करते हैं। यह कथन सामान्यसे है। विशेषकी अपेक्षा तो आठ समय अधिक वर्षपृथक्त्वके भीतर उपशमश्रेणीके योग्य (लगातार) आठ समय होते हैं। उनमेंसे प्रथम समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे सोलह जीवतक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। दूसरे समय में एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्ट रूपसे चौवीस जीवतक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। तीसरे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे तीस जवितक उपशमश्रेणी पर चढ़ते हैं। चौथे समयमें एक जीवको आदि लेकर उत्कृष्टरूपसे
१ गो. जी. ६२५. परं तत पंचेव य तेणउदी णवट्ठविसयच्छ उत्तरं पमदे' इति पाठः। पं. सं. ६२, ६३.
२ चत्वार उपशामकाः प्रवेशेन एको वा द्वौ वा त्रयो वा । उत्कर्षेण चतुःपंचाशत् । स. सि. १,८. " एगारचउपपणा समग उवसामगा य उवसंता । पश्चसं. २,२३.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org