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१, २, १३१.] दव्पमाणाणुगमे वेदमग्गणापमाणपरूवणे [४१९
इत्थिवेदपमत्तादिरासिस्स संखेज्जदिभागमेतो णवुसयवेदपमत्तादिरासी होदि । कुदो ? इट्टपागग्गिसमाणेण णqसयवेदोदयेण सणिदाणेण पउरं सम्मत्त-संजमादीणमुक्लंभाभावादो । ओघपमाणं ण पावेंति. त्ति जाणावणटुं सुत्ते संखेज्जणिद्देसो कओ। णqसयवेदउवसामगा पंच ५, खवगा दस १० । इत्थिवेद-णवुस यवेदे पमत्ता अपमत्ता च एत्तिया चेव हति त्ति संपहि उवएसो णत्थि ।
अपगदवेदएसु तिण्हं उवसामगा केवडिया, पवेसेण एको वा दो वा तिण्णि वा, उकस्सेण चउवण्णं ॥ १३१॥
एत्थ पुरदो भण्णमाणअवगदवेदजीवसंचयपदुप्पायणसुत्तेणेव पज्जत्तं किमणेणं अवगदवेदपवेसपरूवणासुत्तेणेत्ति ?ण एस दोसो, उवसमसेढिपवेसणतुल्लो अवगयवेदपज्जायपवेसो त्ति जाणावणफलत्तादो । तिहमिदि णेदं छट्ठीबहुवयणं किंतु पढमाबहुवयणमिदि घेत्तव्यं, छट्ठविहत्तिउप्पत्तिणिमित्ताभावादो । कधमुवसंतकसायस्स उवसामगववएसो ? ण,
स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत आदि राशिके संख्यातवें भागमात्र नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत आदि जीवराशि होती है, क्योंकि, इष्टपाककी अग्निके समान नपुंसक वेदके उदयसे अतिकामाभिलाषसे युक्त होनेके कारण प्रचुरतासे सम्यक्त्व और संयमादि परिणामोंका उपलंभ नहीं पाया जाता है। प्रमत्तसंयत आदि नपुंसकवेदी जीवराशि ओघप्रमाणको नहीं प्राप्त होती है, इसका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें संख्यात पदका निर्देश किया है। नपुंसकवेदी उपशामक पांच और क्षपक दश होते हैं। स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव इतने ही होते हैं, इसप्रकार इस समय उपदेश नहीं पाया जाता है।
अपगतवेदियों में तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव कितने हैं ? प्रवेशसे एक, दो या तीन, और उत्कृष्टरूपसे चौवन हैं ॥ १३१ ।।
शंका-यहां आगे कहा जानेवाला अपगतवेदी जीवोंके संचयका प्ररूपक सूत्र ही पर्याप्त है, फिर अपगतवेदी जीवों के प्रवेशके प्ररूपण करनेवाले इस सूत्रका क्या प्रयोजन है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उपशमश्रेणीमें प्रवेश करनेके समान ही अपगतवेद पर्याय में प्रवेश होता है, इस बातका ज्ञान कराना इस सूत्रका फल है।
सूत्रमें आया हुआ 'तिण्हं' पद षष्ठी विभक्तिका बहुवचन नहीं है, किन्तु प्रथमा विभक्तिका बहुवचन है, यहां ऐसा अर्थ लेना चाहिये, क्योंकि, यहां पर षष्ठी विभक्तिकी उत्पत्तिका कोई निमित्त नहीं पाया जाता है।
१ प्रतिषु सविणधाणेण' इति पाठः ।
२ प्रतिषु 'उसमागेण ति पाठः । ३ अपगतवेदा अनिवृत्तिबादरादयोऽयोगकेवल्यता सानाम्योक्तांख्या: । स. सि. १,..
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