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________________ ११८] छक्खडागमे जीवट्ठाणं [१, २, १३०. गqसयवेदमिच्छाइट्ठिणो अणंतत्तणेण ओघमिच्छाइट्ठीहि समाणा । सासणादओ पलिदोवमस्स असंखेजदिभागत्तणेण ओघगुणपडिवण्णेहि समाणा त्ति ओघत्तमेदेसिं जुञ्जदे। एत्थ अवहारकालुप्पत्ती वुच्चदे । तं जहः- इत्थि-पुरिसवेदसगुणपडिवण्णे अवगदवेदजीवे च णवुसयवेदमिच्छाइट्ठिरासिभजिदमेदेसिं वग्गं च सव्वजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते धुवरासी होदि । एदेण सव्वजीवरासिस्सुवरिमवग्गे भागे हिदे णqसयवेदमिच्छाइद्विरासी होदि । इत्थिवेदअसंजदसम्माइट्टिअवहारकालं आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे णqसयवेदअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइडिअवहारकालो होदि। तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो हेोदि । (पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टिबादरसांपराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १३०॥ नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तत्वकी अपेक्षा ओघमिथ्यादृष्टियोंके समान हैं और नपुंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि आदि जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागत्वकी अपेक्षा ओघ गुणस्थानप्रतिपन्नोंके समान हैं, इसलिये नपुंसकवेदी इन राशियोंके ओघपना बन जाता है। अब इन नपुंसकवेदियोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको कहते हैं। वह इसप्रकार है-गुणस्थानप्रतिपन्न स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव राशिको तथा अपगतवेदी जीवराशिको तथा नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित इन्हीं स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और अपगतवेदी राशिके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशि होती है । इससे सर्व जीवराशिके उपरिम वर्गके भाजित करने पर नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीवराशि होती है। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहार कालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें गणित करने पर नपंसकवेठी सम्यग्मियादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गणित करने पर नपंसकवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर नपुंसकवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिबादरसांपरायिकप्रविष्ट उपशामक और क्षपक गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥१३०॥ १ प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिनादरान्ताः संख्ययाः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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