SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 510
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२, १२९.] दव्वपमाणाणुगमे वेदमग्गणापमाणपख्वणं [११७ इस्थिवेद-णqसयवेदरासिपरिहीणो ओघरासी पुरिसवेदस्स भवदि । कधं तस्स ओघत्तं जुज्जदे ? ण एस दोसो, ओघमिव ओघमिदि तस्स ओघत्तसिद्धीदो।। एत्थ अवहारकालो वुच्चदे । ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकालं आवलियाए असंखेजदिभागेण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते पुरिसवेदअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभागेण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संखेजस्वेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो होदि । ओघपमत्तादिसु अप्पणो संखेजभागभूदइस्थि-णqसयवेदरासिपमाणमवणिदे पुरिसवेदपमत्तादओ भवंति । __णqसयवेदेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासजदा ति ओघं ॥ १२९ ॥ और क्षपक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥१२८॥ ओघराशिमेंसे स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी राशिको कम कर देने पर जो लब्ध रहे उतना पुरुषवेदियोंका प्रमाण है। शंका- इस सासादनसम्यग्दृष्टि आदि पुरुषवेदीराशिको ओघपना कैसे बन सकता है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ओघके समानको भी ओघ कहते हैं, इसलिये उस सासादनसम्यग्दृष्टि आदि पुरुषवेदीराशिके ओघपना सिद्ध हो जाता है। अब पुरुषवेदियोंके अघहारकालको कहते हैं- ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकाल में मिला देने पर पुरुषवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर पुरुषवेदी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। ओघ प्रमत्तसंयत आदि राशियोंमेंसे उन्हींके संख्यातवें भागभूत स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी राशिके प्रमाणको घटा देने पर पुरुषवेदी प्रमतसंयत आदि जीव होते हैं। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर संयतासंयत गुणस्थानतक जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १२९ ॥ १नपुंसकवेदा मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः।xx नपुंसकवेदाश्च सासादनसम्यग्दृष्टयादयः संयतासंयतान्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८. तेहिं विहीण सवदो रासी संढाणं परिमाणं ॥ गो. जी. २७१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy