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________________ ४१६ ] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, २, १२७. ( पत्ताणं ओघरासिं संखेज्जखंडे कए एयखंड मित्थवेदपमत्तादओ भवंति । इत्थवेद उवसामगा दस १०, खवगा वीस २० । पुरिसवेदसु मिच्छाइट्टी दव्वपमाणेण केवडिया, देवेहि सादिरेयं ॥ १२७ ॥ १ देवलोए देवीणं संखेज्जदिभागमेत्ता देवा भवंति । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं संखेज्जदिभागमेत्ता तिरिक्खेसु पुरिसवेदा भवति । तेसु देवेसु पक्खितेसु देवेहि सादिरेयं पुरिसवेदसिपमाणं होदि । एत्थ अवहारकालुष्पत्तिं वत्तइस्लामो ) देवअवहारकालं तेत्तीसरूवेहि गुणिय तत् एक्कपदरंगुलं घेतूण संखेजखंड काऊण तत्थेगखंडमवणिय बहुखंडे तत्थेव पक्खिते पुरिसवेदमिच्छाइट्ठिअवहारकालो होदि । एदेण जगपदरे भागे हिदे पुरिसवेदमिच्छाइट्टिरासी होदि । ( सासणसम्माद्विपहुड जाव अणियट्टिबादरसां पराइयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवाडिया, ओघं ॥ १२८ ॥ १२६ ॥ क्षपक गुणस्थानतक जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानसंबन्धी ओघराशिको संख्यातसे खंडित करने पर एक खंडप्रमाण स्त्रीवेदी प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। स्त्रीवेदी उपशामक दश और क्षपक वीस हैं । पुरुष वेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवोंसे कुछ अधिक हैं ।। १२७ ॥ देवलोक में देवियों के संख्यातवें भागमात्र देव हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों के संख्यातवें भागमात्र तिर्यचों में पुरुषवेदी जीव हैं । इन पुरुषवेदी तिर्यंचोंके प्रमाणको देवों में प्रक्षिप्त कर देने पर देवोंसे कुछ अधिक पुरुषवेद जीवराशिका प्रमाण होता है । अब यहां उक्त जीवोंके अवहारकालकी उत्पत्तिको बतलाते हैं- देवोंके अवहारकालको तेतीस से गुणित करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक प्रतरांगुलको ग्रहण करके और उसके संख्यात खंड करके उनमें से एक खंडको घटाकर बहुभाग उसी पूर्वोक्त राशिमें मिला देने पर पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि अवहारकाल होता है । इस अवहारकालसे जगप्रतर के भाजित करने पर पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि राशि होती है । सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादरसांपरायप्रविष्ट उपशमक १ वेदानुवादेन XX पुंवेदाश्च मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रामेताः । स. सि. १, ८. देवहिं सादिरेया पुरिसा । गो. जी. २७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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