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________________ १, २, १२६. ] दव्यमाणागमे वेदमग्गणापमाणपरूवणं [ ४१५ जेणेदे चदुगुणट्टाणिणो' जीवा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता तेणेदेसिं परूवणा ओघं होदि । ओघपमाणादो ऊणइत्थिवेदगुणपडिवण्णाणं कथमोघत्तं जुञ्जदे ? ण, ओम ओघमिदि उवयारेण तिस्से औघत्तसिद्धीदो | ओघअसंजदसम्म इडिअवहारकालमावलिया असंखेजदिभाएण गुणिदे इत्थिवेदअसं जदसम्म इडिअवहारकालो होदि । कुदो ? कारिसग्गमाणइत्थवेदेण दज्झतहिययाणमित्थीणं सणिदाणाणं परं सम्मत्तपरिणामासंभवादो | तहि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइट्ठिअवहार कालो होदि । तहि संखेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियार असंखेज्जदिभाएण गुणिदे संजदासंजदअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकाले हि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ भवंति । पमत्त संजद पहुडि जाव अणियट्टिबादर सांप इयपविट्ठ उवसमा खवा दव्वपमाणेण केवडिया संखेज्जा ॥ १२६ ॥ ) " स्थान में स्त्रीवेदी जीव ओघप्ररूपणा के समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ।। १२५ ।। चूंकि ये चार गुणस्थानवर्ती जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा के समान होती है । शंका- गुणस्थानप्रतिपन्न ओघप्ररूपणा से न्यून गुणस्थानप्रतिपन्न स्त्रीषेदियोंके प्रमाको ओपना कैसे बन सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, ओघके समानको भी ओघ कहा जाता है, इसलिये उपचार से स्त्रीवेदियोंकी संख्याको ओघत्व सिद्ध हो जाता है । ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है, क्योंकि, उपलेकी अनिके समान स्त्रीवेदसे जिनका हृदय जल रहा है और जो कामाभिलाष सहित हैं, ऐसी स्त्रियोंके प्रचुरता से सम्यक्चपरिणाम संभव नहीं है । अर्थात् स्त्रीवेदके साथ प्रचुर सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं । उस स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागले गुणित करने पर स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है । स्त्रवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी सासादनसम्यदृष्टियोंका अवहारकाल होता है । स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टियों के अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर स्त्रीवेदी संयतासंयताका अवहारकाल होता है । इन अवहार कालोंसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियोंका प्रमाण आता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिवादरसांपरायप्रविष्ट उपशमक और १ प्रतिषु ' चदुगुणट्ठाणाणि ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'सणिधाणाणं ' इति पाठः । ३ प्रमचसंयतादयोऽनिवृत्तिवादशन्ता: संख्येयाः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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