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________________ २५४] छक्खंडागमे जीवडाणं [१, २, ४५. संखेअदिभागो संखेज्जाणि छद्रुषग्गाणि । तं जहा- छहमवग्गेण सत्तमवग्गे भागे हिदे छट्ठवग्गो आगच्छदि। पंचमवग्गेण सत्तमनग्गे भागे हिदे संखेज्जा छहवग्गा आगच्छति । कारणं गदं । णिरुत्ती वियप्पो य चिंतिय वत्तव्यो । एदम्हादो मणुसपञ्जत्तरासीदो तेरस कोडी देसे वावण्णं सासणे मुणेयव्वा । मिस्से वि य तदुगुणा असंजदे सत्तकोडिसया ॥ ७० ॥ एदीए गाहाए वुत्तगुणपडिवण्णरासीओ एयत्तं करिय पमत्तादि-णव-संजदरासिं च तत्थेव पक्खिविय अवणिदे मणुसपज्जत्तमिच्छाइद्विरासी होदि। पंचमवग्गं चदुहि रूवेहि गुणिदे दुवेदमणुसपज्जत्तअवहारकालो होदि । तेण सत्तमबग्गे भागे हिदे मणु१पज्जत्तदुवेदरासी आगच्छदि। मणुसपज्जत्ता चायालवग्गस्स घण पर्याप्त मिथ्यादृष्टि राशिका प्रमाण द्विरूपके सातवें वर्गका संख्यातवां भाग है जो संख्यात छठवें वर्गप्रमाण है। आगे उसीका स्पष्टीकरण करते हैं-द्विरूपके छठवें वर्गका उसीके सातवें वर्गमें भाग देने पर छठवां वर्ग आता है। पांचवें वर्गसे सातवें वर्गके भाजित करने पर संख्यात छठवें वर्ग आते हैं। इसप्रकार कारणका वर्णन समाप्त हुआ। निरुक्ति और विकल्पका विचार कर कथन करना चाहिये । इस मनुष्य पर्याप्त राशिसे ___ संयतासंयतमें तेरह करोड़, सासादनमें बावन करोड़, मिश्री सासादनके प्रमाणसे दुने और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सातसौ करोड़ मनुष्य होते हैं ॥ ७० ॥ ____ इस गाथाके द्वारा कही गई गुणस्थानप्रतिपन्न राशिको एकत्रित करके और प्रमत्तसंयत आदि नौ संयतराशिको उसी पूर्वोक्त एकत्र की हुई राशिमें मिलाकर जो जोड़ हो उसके घटा देने पर मनुष्य पर्याप्त मिथ्या दृष्टि जीवराशि होती है। द्विरूपके पांचवें वर्गको चारसे गुणित करने पर दो वेवाले मनुष्य पर्याप्तोंका अवहारकाल होता है। उस अवहारकालसे सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्य पर्याप्त दो वेदवाले जीवोंकी राशि आती है। विशेषार्थ-किसी भी विवक्षित वर्गात्मक राशिको चारसे गुणित करके लब्धका उस वर्गात्मक राशिके उपरिम वर्गके उपरिम वर्गमें भाग देने पर उस विवक्षित वर्ग राशिके घनका चौथा भाग लब्ध आता है। तदनुसार प्रकृतमें द्विरूपके पांचवें वर्गको चारसे गुणित करके उसका सातवीं वर्गराशिमें भाग देने पर पांचवें वर्गके घनत्रमाण पर्याप्त मनुप्य राशिका चौथा भाग लग्ध आता है । स्त्रीवेदियोको छोड़कर द्विवेदी मनुष्योंका यही प्रमाण है। १ प्रतिषु ' अढवग्गा' इति पाठः। चउ अg पंच सतह णव य पंच? तिद य अट्ठ णवा ति चउकट्ठणहाई छ छक पंचट्ट दुग छक्ख वउकाणम सत्त गयण अढ णव एकं पजत्तरासिपरिमाणं ॥ १९८०७०४०६२८५६६०८४३९८३८५९८७५८४. ति. प. १६. पत्र.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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