SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ४५.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसगदिपमाणपरूवणं [२५५ मेत्ता त्ति जं वक्खाणे भणिदं जुत्तीए जोइज्जमाणे तं ण घडदे, 'कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो ' त्ति सुत्तेण सह विरोधत्तादो । तं कधं जाणिजदे ! एगुणतीसट्ठाणेसु ढिदवायालवग्गघणस्स एगुणत्तीसटाणेहिंतो ऊणत्तविरोहादो। किं च जदि वायालवग्गधणमेत्तो मणुसपज्जत्तरासी होज्ज तो माणुसखेत्ते ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० ।* गयणट्ठ-णय-कसाया चउसहि-मियंक-वसु-खरा-दव्वा । छायाल-वसु-णभाचल-पयत्थ-चंदो रिदू कमसो ॥ ७१ ।। 'मनुष्य पर्याप्त जीवराशि बादालके घनमात्र है' यह जो ऊपर व्याख्यान करते समय कह आये हैं, युक्तिसे विचार करने पर वह कथन घटित नहीं होता है, क्योंकि, 'कोड़ाकोड़ाकोड़ीके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ाके नीचे मनुष्य पर्याप्त राशि है' इस सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध आता है। शंका--यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, उनतीस स्थानोंमें स्थित बादालरूप वर्गके घनको उनतीस स्थानोंसे कम अंकरूप माननेमें विरोध आता है। विशेषार्थ-ऊपर सूत्रद्वारा पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रमाण कोड़ाकोडाकोड़ीके ऊपर और कोडाकोड़ा कोडाकोडके नीचे बीचकी कोई संख्या बतलाई जा चुकी है । जब कि एक अंकके ऊपर २१ शून्य रखनेसे बाईस अंकप्रमाण कोड़ाकोड़ाकोड़ी होती है और एक अंकके ऊपर २८ शून्य रखनेसे उनतीस अंकप्रमाण कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ी होती है, तब यह निश्चित हो जाता है कि सूत्रानुसार पर्याप्त मनुष्य राशिका प्रमाण उनतीस अंकके नीचे और बावीस अंकके ऊपर बीचकी कोई संख्या होना चाहिये । अब यदि द्विरूपके पांचवें वर्गके घनप्रमाण पर्याप्त मनुष्य राशि मानी जाय तो पूर्वोक्त सूत्रके कथनके साथ इस कथनका विरोध आ जाता है, क्योंकि द्विरूपके पांचवें वर्गके घनका प्रमाण उनतीस अंकप्रमाण होते हुए भी कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़ीके प्रमाणके ऊपर है, इसलिये द्विरूपके पांचवें वर्गके घनका प्रमाण उनतीस अंकसे नीचेकी संख्या नहीं हो सकती है। पर सत्रानुसार पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण उनतीस अंकसे नीचेकी संख्या विवक्षित है. इसलिये 'पंचमकदिघणसमा पुण्णा' इत्यादि रूपसे जो पर्याप्त मनुष्यराशिका प्रमाण पाया जाता है, वह सूत्रानुसार नहीं है, ऐसा प्रतीत होता है। दूसरे, यदि बादालरूप वर्गके धनप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि होवे तो वह राशि मनुष्य-क्षेत्र में ६१९७०८४६६६८१६४१६२०००००००० अर्थात् क्रमशः आठ शून्य, नय अर्थात् दो, कषाय अर्थात् सोलह, चौसठ, मृगांक अर्थात् एक, * प्रतिषु अष्टानां शून्याना प्राक् '६२ ' इति स्थाने केवलं ६ ' इति पाठ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy