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________________ १, २, ४५.] दव्वपमाणाणुगमे मणुसंगदिअप्पाबहुगपखवणं [२५३ मणुसपज्जत्तेसु मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेटुदो छण्हं वग्गाणमुवरि सत्तण्हं वग्गाणं हेहदों ॥ ४५ ॥ छट्ठवग्गस्स उवरि सत्तमवग्गस्स हेट्ठदो त्ति वुत्ते अत्थवत्ती ण जादेत्ति अत्थवत्तीकरणहूँ कोडाकोडाकोडीए उवरि कोडाकोडाकोडाकोडीए हेढदो त्ति वुत्तं । एदस्स मणुसपज्जतमिच्छाइट्ठिरासिस्स पमाणपत्रणमाइरियोवएसेण बुच्चदे । वेरुवस्स पंचमवग्गेण छट्टमवग्गं गुणिदे मणुसपज्जत्तरासी होदि । सत्तमवग्गे संखेज्जखंडे कए एगखंड मणुसपज्जत्तरासी होदि । खंडिदं गदं । पंचमवग्गेण सत्तमवग्गे भागे हिदे मणुसपजत्तरासी होदि । भाजिदं गदं । विरलिदं अवहिदं च चिंतिय वत्तव्यं । पमाणं सत्तमवग्गस्स मनुष्य पर्याप्तोंमें मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? कोड़ाकोड़ाकोड़िके ऊपर और कोडाकोड़ाकोड़ाकोड़िके नीचे छह वर्गोंके ऊपर और सात वर्गाके नीचे अर्थात् छठवें और सातवें वर्गके बीचकी संख्याप्रमाण मनुष्यपर्याप्त होते हैं ॥ ४५ ॥ _ 'छठ वर्गके उपर और सातवें वर्गके नीचे ' ऐसा कहने पर अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं होती है, इसलिये अर्थकी प्रतिपत्ति करनेके लिये 'कोड़ाकोड़ाकोड़िके ऊपर और कोड़ाकोड़ाकोड़ाकोड़िके नीचे ' ऐसा कहा। अब इस मनुष्य पर्याप्त मिश्यादृष्टि राशिके प्रमाणका प्ररूपण अन्य आचार्योंके उपदेशानुसार कहते हैं द्विरूपके पांचवें वर्गसे उसीके छठवें वर्गके गुणित करने पर मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। द्विरूपके सातवें वर्गके संख्यात खंड करने पर उनमेंसे एक खंडप्रमाण मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। इसप्रकार खंडितका कथन समाप्त हुआ। द्विरूपके पांचवें वर्गसे उसीके सातवें वर्गके भाजित करने पर मनुष्य पर्याप्त राशि होती है। इसप्रकार भाजितका वर्णन समाप्त हुआ। इसीप्रकार विचार कर विरलित और अपहृतका कथन कर लेना चाहिये। मनुष्य एकं दस सयं सहरसं दमसहस्म लक्खं दलक्खं कोडिं दहकोडि कोडिमयं कोडिसहस्सं दसकोडिसहस्स कोडिलक्ख दहकोडिलक्खं कोडाकोडी दहकोडाकोडी कोडाकोडिसयं कोडाकोडिसहस्सं दहकोडाकोडिसहस्सं कोडाकोडिलक्ख दहकाडाकाडिलक्खं कोडाकोडिकोडी दहकोडाकोडिकोडी कोडाकोडिकोडिसय कोडाकाडिकोडसहस्सं दहकोडाकोडिकोडिसहस्स कोडाकोडिकोडिलक्ख दहकोडाकोडकाडिलक्खं कोडाकोडिकाडिकोड। इत्यायकवाचनप्रकारः। लो. प्र. सर्ग ७. पत्र १०८. सामण्णमणुसरासी पंचमकदिघणसमा पुण्णा ।। गो. जी. १५७. गर्भजाना मनुष्याणामथ मानं निरूप्यते । एकोनत्रिंशता कैस्ते मिता जघन्यतोऽपि हि ॥ लो प्र.सर्ग ७.पत्र १०७. संख्या च तेषां जघन्यतोऽपि पचमवर्गगुणितषष्ठवर्गप्रमाणा द्रष्टव्या । अयं च राशिरेकोनत्रिंशदकस्थानो न कोटाकोब्यादिप्रकारेणाभिधातुं कथमपि शक्यते । xx एष च राशिः पूर्वसूरिमिनियमलपदादृवं चतुर्यमलपदस्याधस्तादित्युपवर्यते । पश्चसं. २, २१ टीका. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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