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१, २, २४.] दव्वपमाणाणुगमे तिरिक्खगदिपमाणपरूवणं
[२१५ तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छाइटिप्पहुडि जाव संजदासंजदा त्ति ओघं ॥२४॥
एदस्स सुत्तस्स अत्यो उच्चदे । तं जहा- अणंतत्तणेण तिरिक्खगदिमिच्छाइट्ठीणं ओघमिच्छाइट्ठिजीवहिंतो विसेसाभावादो तिरिक्खगइमिच्छाइट्ठीणं दध-खेत्त-काले अस्सिऊण जा ओघमिच्छाइद्विपरूवणा सा सव्वा संभवदि । गुणपडिवण्णागं पि असंखेजत्तणेण ओघपडिवण्णेहि समाणाणं जा ओघपडिवण्णपरूवणा सा सव्या संभवदि । तम्हा दव्वट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे तिरिक्खोघस्स परूषणा ओघववदेस लब्भदे । पञ्जवट्टियणए अवलंबिज्जमाणे पुण ओघपरूवणा ण भवदि, तिरिकावगइवदिरित्ततिगदीणमत्थित्तस्स
अल्पबहुत्वको मिलाकर कथन किया जाता तो प्रारंभमें जो प्रथम नरकके असंयतसम्यग्दृष्टियोका अवहारकाल सबसे स्तोक कहा है उसके स्थानमें 'नारक सामान्य असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल सबसे स्तोक है और इससे विशेष अधिक प्रथम पृथिवीके असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल है, इत्यादि कहा जाता। पर यहां पर इस सब कथनको टीकाकारने क्यों छोड़ दिया है, यह बतलाना कठिन है।
इसप्रकार नरकगतिका वर्णन समाप्त हुआ। तियंच गतिका आश्रय करके तिर्यचोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिथंच सामान्य प्ररूपणाके समान हैं ॥ २४ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इसप्रकार है-तिर्यंचगतिके मिथ्याष्टियों में ओघ मिथ्यादृष्टि जीवोंसे अनन्तत्वकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिये द्रव्य, क्षेत्र और कालप्रमाणका आश्रय करके जो ओघ मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा है वह संपूर्ण तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवोंके संभव है। उसीप्रकार गुणस्थानप्रतिपन्न तियंच भी असंख्यातत्वकी अपेक्षा सामान्य गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके समान हैं, इसलिये गुणस्थानप्रतिपन्न सामान्य जीवोंकी जो प्ररूपणा है वह संपूर्ण गुणस्थानप्रतिपन्न तिर्यंचोंके संभव है। अतएव द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सामान्य तिर्यंचोंकी प्ररूपणा ओघ व्यपदेशको प्राप्त होती है। परंतु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर सामान्य प्ररूपणा तिर्योंके नहीं पाई जाती है, क्योंकि, यदि ऐसा नहीं माना जाय तो तिर्यंच गतिके अतिरिक्त शेष तीन गतियोंका अस्तित्व ही नहीं
वालुयप्पभापुढवीनेरइएहिंतो दोच्चाए सक्करप्पभाए पुटवीए नेरइया पुरच्छिमपच्चत्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। दाहिणिल्हहिंतो सकरप्पमापुटवीनेरइएहिंतो इमीसे रयणप्पभाए पढवीए नेरहया पुरच्छिमपच्चस्थिमउत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। प्र, सू. ३, १. पृ. ३४८-३५०.
१ तिर्यग्गतौ तिरश्वां मिथ्यादृष्टयोऽनन्तानन्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः संयतासंयतान्ताः पल्योपमासंख्येय. मागप्रमिताः । स. सि. १, ८. संसारीxx तिगदिहीणयाxx सामण्णाxx तेरिक्खा। गो. जी. १५५.
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