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________________ १, २, १.४. ] दव्यमाणागमे वेदमग्गणापमाणपरूवणं [ ४१३ संखेज्जगुणं । एवं मोसवचिजोगि सच्चमोसव चिजोगि वेउच्चियकाय जोगि-असच्चमोसवचिजोगिदव्वाणि जहाकमेण संखेज्जगुणाणि । तदो वचिजोगिदव्त्रं विसेसाहियं । पदरमसंखेजगुणं । लोगो असंखेज्जगुणो । तदो अजोइणो अगंतगुणा । कम्मइयकायजोगिणो अनंतगुणा । ओरालियमस्सकायजोगिणो असंखेज्जगुणा । ओरालियकायजोगिणो मिच्छाइट्ठी संखेज्जगुणा | एवं जोगमग्गणा समत्ता । वेद वाण इत्थवेदसु मिच्छारट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया, देवीहि सादिरेयं ॥ १२४ ॥ १ देवगमगणा देवणं पमाणमेत्तियं होदि त्ति सुत्तम्हि ण वृत्तं, तो कधं जाणिदे इत्थवेदरासी देवीहिंतो सादिरेगो इदि ? जदि वि एत्थ ण बुत्तो तो वि 'ईसाणकप्पवासियदेवाणमुवरि तम्हि चेव देवीओ संखेज्जगुणाओ । तदो सोहम्मकप्पवासियदेवा संखेज्जगुणा । तहि चैव देवीओ संखेज्जगुणाओ । पढमाए पुढवीए णेरड्या असंखेज द्रव्य मनोयोगियोंके द्रव्यसे संख्यातगुणा है । इसीप्रकार मृषावचनयोगी, उभयवचनयोगी, वैकिकाययोगी और अनुभय वचनयोगियोंका द्रव्य यथाक्रमसे संख्यातगुणा है । अनुभय वचनयोगियोंके द्रव्यसे वचनयोगियोंका द्रव्य विशेष अधिक है । जगप्रतर वचनयोगियोंके द्रव्य से असंख्यातगुणा है । लोक जगप्रतरसे असंख्यातगुणा हैं । लोकले अयोगी जीव अनन्तगुणे हैं। अयोगियोंसे कार्मणकाय योगी जीव अनन्तगुणे हैं । कार्मणकाययोगियोंसे औदारिकमिश्रकाययोगी जीव असंख्यातगुणे हैं । औदारिकामिश्रकाययोगियोंसे औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणे इस प्रकार योगमार्गणा समाप्त हुई । वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? देवियोंसे कुछ अधिक हैं ।। १२४ ॥ शंका – देवगति मार्गणा में देवियोंका प्रमाण इतना है, यह सूत्र में नहीं कहा है, अतएव यह कैसे जाना जाता है कि स्त्रीवेदराशि देवियोंसे साधिक होती है-? समाधान - यद्यपि यहां जीवट्टणमें यह बात नहीं कही है तो भी 'ऊपर ईशानकल्पवासी देवोंके वहीं पर देवियां उनसे संख्यातगुणी हैं। उनसे सौधर्म कल्पवासी देव संख्यातगुणे हैं और वहीं पर देवियां देवोंसे संख्यातगुणी हैं। पहली पृथिवीमें नारकी जीव सौधर्म कल्पकी देवियोंसे असंख्यातगुणे हैं । भवनवासी देव नारकियोंसे १ वेदानुवादेन स्त्रीवेदाः X X मिथ्यादृष्टयोऽसंख्येयाः श्रेणयः प्रतरासंख्येय भागमिताः । स. सि. १, ८. देवी साहिया इत्थी । गो. जी. २७९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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