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१, २, १८१.] दव्वपमाणाणुगमे सम्मत्तमग्गणापमाणपरूवणं
[४७७ पमत्तसंजदप्पहुडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १८१॥
एत्थ संखेजवयणं ओघपमाणपडिसेहफलं । ओघदव्यपमाणं ण पावेदि ति कधमवगम्मदे ? ओघपमत्तादिरासिस्स संखेजदिभागो तम्हि तम्हि उवसमसम्माइद्विरासी होदि ति अप्पाबहुगवयणादो । (सासणसम्माइट्ठी ओघं ॥ १८२ ॥
सम्मामिच्छाइट्ठी ओघं ।। १८३॥ मिच्छाइट्ठी ओघं ॥ १८४ ॥)
एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि ओघम्मि परूविदाणि त्ति णेह परूविज्जत्ति । एत्थ अवहारकालुप्पायणविहिं वत्तइस्सामो । ओघअसंजदसम्माइट्ठिअवहारकाले आवलियाए
प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर उपशान्तकषाय वीतरागछमस्थ गुणस्थानतक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १८१ ॥
यहां सूत्रमें 'संख्यात हैं' यह वचन ओघप्रमाणके प्रतिषेधके लिये दिया है।
शंका-प्रमत्तादि उपशान्तकषाय गुणस्थानतक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ओघ द्रव्यप्रमाणको प्राप्त नहीं होते हैं, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- 'ओघ प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवी राशिके संख्यातवें भाग उस उस गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव होते हैं। इस अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके घचमसे जाना जाता है कि प्रमत्तसंयत आदि उपशान्तकषायतक प्रत्येक गुणस्थानके उपशमसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्रमाणको प्राप्त नहीं होते हैं।
सासादनसम्यग्दृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ॥ १८२
सम्यग्मिथ्यावृष्टि जीव ओधप्ररूपणाके सामन पल्योपमके असंख्यातवें भाग हैं ।। १८३ ॥
मिथ्यादृष्टि जीव ओघप्ररूपणाके समान अनन्तानन्त हैं ॥ १८४ ॥
इन तीनों सूत्रोंका प्ररूपण ओघप्ररूपणाके समय कर आये हैं, इसलिये यहां उनका प्ररूपण नहीं करते हैं। अब यहां पर अवहारकालके उत्पन्न करनेकी विधिको बतलाते है
१ प्रमलाप्रमत्तसंयताः संख्येयाः । चत्वार औपशमिकाः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८..
२ सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्यग्मिथ्यादृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सामान्योक्तसंख्या: । स. सि. १, ८. पल्लासंखेज्जदिमा सासणमिच्छा य संखगुणिदा हु । मिस्सा तेहिं विहीणो संसारी वामपरिमाणं ॥ गो. जी. ६५९.
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