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________________ १७८) छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, २, १८.. असंखेजदिभाएण भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते वेदगअंसजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे खइयअसंजदसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे असंजदउवसमसम्माइडिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे सम्मामिच्छाइटिअवहारकालो होदि । तम्हि संवेज्जरूवेहि गुणिदे सासणसम्माइट्ठिअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेज्जदिभाएण गुणिदे वेदगसम्माइट्ठिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । तम्हि आवलियाए असंखेजदिभाएण गुणिदे उवसमसम्माइट्ठिसंजदासंजदअवहारकालो होदि । एदेहि अवहारकालेहि पलिदोवमे भागे हिदे सग-सगरासीओ आगच्छंति । सिद्धतेरसगुणट्ठाणरासिं मिच्छाइटिभजिदतव्वग्गं च सव्यजीवरासिस्सुवरि पक्खित्ते मिच्छाइट्टिधुवरासी होदि। भागाभागं वत्तइस्सामो। सव्यजीवरासिमगंतवंडे कए बहुखंडा मिच्छाइदियो होति । सेसमणंतखंडे कए बहुखंडा सिद्धा । सेसमसंखज्जखंडे कए बहुखंडा वेदगअसंजदसम्माइट्ठिणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा खइयअसंजदसम्माइद्विणो । सेसमसंखेज्जखंडे कए बहुखंडा उवसमअसंजदसम्माइट्ठिणो। सेसं संखेज्जखंडे कए मोघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंके अवहारकालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करने पर जो लब्ध आधे उसे उसी अघहारकाल में मिला देने पर वेदक असंयतसम्यग्दृष्टियोंका भवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर क्षायिक असंयतसम्यग्हटियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर असंयत उपशमसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आवलीके असंख्यात भागसे गुणित करने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे संख्यातसे गुणित करने पर सासादनसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इसे आपलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है । इसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करने पर उपशममसम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। इन अवहारकालोसे पल्योपमके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां आती हैं। सिद्धराशि और तेरह गुणस्थानवर्ती राशिको तथा मिथ्यादृष्टि राशिसे भाजित उन राशियोंके वर्गको सर्व जीवराशिमें मिला देने पर मिथ्यादृष्टियोंकी ध्रुवराशि होती है। अब भागाभागको बतलाते हैं- सर्व जीवराशिके अनन्त खंड करने पर उनमें से बहुभाग मिथ्यादृष्टि जीव होते हैं। शेष एक भागके अनन्त खंड करने पर बहुभाग सिद्ध जीव है। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग वेदकअसंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके असंख्यात खंड करने पर बहुभाग क्षायिक असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भागके भसंख्यात खंड करने पर बहुभाग उपशम असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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