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________________ ३१२) छक्खंडागमे जीवहाणं [१, २, ८७. विहाणं उच्चदे । तं जहा- तेउक्काइयरासिं पुढविकाइयरासिम्हि सोहिय सेसेण तेउक्काइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगरासी आगच्छदि । तेण रूवाहिएण तेउक्काइयरासिमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे पुढविकाइयअवहारकालो होदि । पुणो पुढविकाइयरासिं आउकाइयरासिम्हि सोहिय सेसेण पुढविकाइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेजलोगमेत्तरासी आगच्छदि । तेण रूवाहिएण पुढविकाइयअवहारकालमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे आउक्काइयअवहारकालो होदि । पुणो आउक्काइयरासि वाउकाइयरासिम्हि सोहिय तत्थावसिट्ठरासिणा आउकाइयरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तरासी लब्भदि । तेण रूवाहिएण आउकाइयअवहारकाले भागे हिदे लद्धं तम्हि चेव अवणिदे वाउकाइयअवहारकालो होदि । एत्थुव उजंती गाहा रासिविसेसेणवहिदरासिम्हि य जं हिये समुवलद्धं । रूवूणहिएणवहिदहारो ऊणाहिओ तेण ॥ ७५ ॥ हैं । वह इसप्रकार है- तेजस्कायिक राशिको पृथिवीकायिक राशिमेंसे घटा कर जो शेष रहे उससे तेजस्कायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाणराशिसे तेजस्कायिक राशिको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी तेजस्कायिक राशिमेंसे घटा देने पर पृथिवीकायिक राशिसंबन्धी अवहारकाल होता है। पुनः पृथिवीकायिक राशिको जलकायिक राशिमेंसे घटा कर जो शेष रहे उससे पृथिवीकायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाणराशि आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे पृथिवीकायिक राशिके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उसी पृथिवीकायिक राशिके अवहारकालमेंसे घटा देने पर जलकायिक राशिसंबन्धी अघहारकाल होता है। पुनः अप्कायिक राशिको वायुकायिक राशिमेंसे घटा कर वहां जो राशि अवशिष्ट रहे उससे अप्कायिक राशिके भाजित करने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि लब्ध आती है। एक अधिक उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे अपकायिक राशिके अवहारकालके भाजित करने पर जो लब्ध आवे उसे उसी अप्कायिक राशिके अवदारकालमेंसे घटा देने पर वायुकायिक राशिसंबन्धी अवहारकाल होता है। यहां पर उपयुक्त गाथा दी जाती है राशिविशेषले राशिके भाजित करने पर जो भाग लब्ध आवे उसमेंसे यदि एक कम करके शेष राशिसे भागहार भाजित किया जाय तो उस लम्घको उसी भागहार में मिला देवे और यदि लब्ध राशिमें एक अधिक करके उससे भागहार भाजित किया जाय तो भागहारके भाजित करने पर जो लन्ध राशि आये उसे भागहारमेंसे घटा देना चाहिये ॥ ७॥ AuuuuN १ प्रतिषु 'नं हिवे' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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