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________________ १, २, ८७ ] दव्वपमाणाणुगमे पुढविकाइयादिपमाणपरूवणं [३५१ एसा किरिया इंदिय-कसाय जोगमग्गणासु विसेसाहियरासीणं विसेसहीणरासीण च मिरवयवा कायया । एदे पुव्वुत्ते चत्तारि अवहारकाले विरलिय तेउकाइयरासिस्सुवरिमवग्गं चउण्हं विरलणाणं पुध पुध समखंडं करिय दिण्णे अप्पप्पणो रासिपमाणं पावदि । पुणो सगसगबादरजीवहिं सगसगविरलणाए एगरूबोवरि द्विदसगसगरासिम्हि भागे हिदे असंखेज्जलोगमेत्तरासी आगच्छदि । तेण रूवूणेण सगसगअवहारकालेसु ओवट्टिदेसु लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सगसगसुहुमाणं अवहारकाला भवंति । पुणो एदे चत्तारि वि सुहुमजीवअवहारकाले' पुध पुध विरलिय तेउक्काइयरासिस्सुवरिमवग्गं समखंडं करिय दिण्णे रूवं पडि सगसगसुहुमपमाणं पावेदि । पुणो सगसगविरलगाए एगरूवोवरि हिदसुहुमरासिं सगसगसुहुमअपज्जत्तएहिं भागे हिदे तत्थ लद्धसंखेज्जरूवेहि रूवूणेहि सगसगसुहुमअवहारकाले ओवट्टिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते सगसगसुहुमपज्जताणमवहारकाला भवंति । पुवं भागलद्धसंखेज्जरूवेहिं सगसगसुहुमजीवअवहारकालेसु गुणिदेसु सगसगसुहुमअपज्जत्तअवहारकाला भवंति । चउण्हं बादराणं पुव्वुप्पादिदेहिं असंखेअलोगमेत्त इन्द्रिय, कषाय और योग इन तीन मार्गणाओं में विशेष अधिक राशियोंके और विशेष हीन राशियोंके संबन्धमें संपूर्ण रूपसे यह क्रिया करना चाहिये। पूर्वोक्त इन चारों अवहारकालोको विरलित करके और तेजस्कायिक गशिके उपरिम वर्गको चारों विरलनोंके ऊपर पृथक्-पृथक समान खंड करके दे देने पर अपनी अपनी राशिका प्रमाण प्राप्त होता है । पुनः अपनी अपनी बादरकायिक जीवराशिके प्रमाणका अपने अपने विरलनके एक अंकके ऊपर स्थित अपनी अपनी राशिके प्रमाणमें भाग देने पर असंख्यात लोकप्रमाण राशि प्राप्त होती है। एक कम उस असंख्यात लोकप्रमाण राशिसे अपने अपने अवहारकालोंके भाजित करने पर जो जो लब्ध आवे उसे उसी अपने अपने अवहारकालमें मिला देने पर अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके प्रमाण लाने के लिये अवहारकाल होते हैं। पुनः सूक्ष्म जीवसंबन्धी इन चारों भी अवहारकालोंको पृथक् पृथक् विरलित करके और उन विरलनोंके प्रत्येक एकके ऊपर तेजस्कायिक राशिके उपरिम वर्गको समान खंड करके दे देने पर विरलनोंके प्रत्येक एकके प्रति अपने अपने सूक्ष्म जीवोंका प्रमाण प्राप्त होता है। पुनः अपने अपने विरलनके एक विरलन-अंकके ऊपर स्थित सूक्ष्म जीवराशिके प्रमाण को अपनी अपनी सूक्ष्म अपर्याप्त जीवराशिके प्रमाणसे भाजित करने पर वहां जो संख्यात लब्ध आवें उनमेंसे एक कम करके शेष राशिसे अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके अवहारकालको भाजित करके जो लब्ध आवे उसे उन्हीं अवहारकालोमें मिला देने पर अपने अपने सूक्ष्म पर्याप्त जीवोंके अवहारकाल होते हैं। पहले भाग देने पर जो संण्यातलब्ध आये थे उनसे अपने अपने सूक्ष्म जीवोंके अपहारकालोंके गुणित करने पर अपने अपने सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंके अवहारकाल होते हैं। चारों बादरोंके १ प्रतिषु '-कालेसु' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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