SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, १३७.] दव्वपमाणाणुगमे कसायमग्गणापमाणपख्वणं पमत्तादिरासिं चदुण्हं कसायाणं पडिभागेण चउविहा विहत्ते तत्थ ओघरासिपमाणाणुवलंभादो । कधमेत्थ विहज्जदे ? वुच्चदे- चउण्हं कसायाणमद्धासमासं करिय चदुप्पडिरासिं अप्पप्पणो अद्धाहि ओवट्टिय लद्धसंखेज्जरूवेहि इच्छिदरासिम्हि भागे हिदे सग-सगरासीओ भवंति । एत्थ चोदगो भणदि-पमत्तादीणं चदुकसायरासीओ समाणा आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तद्धाविसेसाओ त्ति । आवलिअसंखेजदिभागमेत्तद्धाविसेसत्ते वि ण रासीणं विसेसाहियत्तं विरुज्झदे, पवेसांतराणं संखाणियमाभावादो। तेणेत्थ तेरासियं ण कीरदे ? ण, पमत्तादिसु माणकसायरासी थोवो । कोधकसायरासी विसेसाहिओ। मायकसायरासी विसेसाहिओ । लोभकसायरासी विसेसाहिओ । णवरि लोभकसाईसु सुहमसांपराइयसुद्धिसंजदा उवसमा खवा मूलोघं ॥ १३७ ॥ समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ओघ प्रमत्तसंयत आदि राशिको घार कषायोंके भागहारसे भाजित करने पर वहां ओघराशिका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता है। शंका-इन राशियोंका यह विभाग किसप्रकार होता है । समाधान -चारों कषायोंके कालोंका योग करके और उसकी चार प्रतिराशियों करके अपने अपने कालसे अपवर्तित करके जो संख्यात लब्ध आवें उससे इच्छित राशिके भाजित करने पर अपनी अपनी राशियां होती हैं। शंका-यहां पर शंकाकार कहता है, एक तो प्रमत्तसंयत आदिमें चारों कषायराशियां समान हैं, क्योंकि, यहां पर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालकी विशेषता नहीं है ? दूसरे, आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कालकी विशेषता नहीं होने पर भी राशियोंकी विशेषाधिकता विरोधको प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि प्रवेशान्तर करनेवाले जीवोंके संख्याका कोई नियम नहीं पाया जाता है। इसलिये यहां पर त्रैराशिक नहीं करना चाहिये ? समाधान-नहीं, क्योंकि, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में मानकषाय जीवराशि सबसे स्तोक है। क्रोधकषाय जीवराशि मानकषाय राशिसे विशेष अधिक है। मायाकषाय अविराशि क्रोधकषाय राशिसे विशेष अधिक है। लोभकषाय जीवराशि मायाकषाय जीवराशिसे विशेष भधिक है। इतना विशेष है कि लोभकषायी जीवों में सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव मूलोष प्ररूपणाके समान हैं ॥ १३७ ॥ १ आ प्रतौ -मेसद्धाए' इति पाठः । १ अयं तु विशेषः, सूक्ष्मसापरायसंयता: सामान्योक्तसस्याः । स. सि. १,.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy