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________________ ४२८) छक्खंडागमे जीवडाणं [१, २, १३१. गुणिदे माणकसाइअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि। तम्हि संखेज्जरूवेहि गुणिदे कोधकसाइअसंजदसम्माइटिअवहारकालो होदि । एवं सम्मामिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठीणं पि वत्तव्वं । ओघसंजदासंजदअवहारकालं चदुहि गुणिय चदुप्पडिरासिं काऊण तत्थेगरासिमसंखज्जेहि स्वेहि खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते माणकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि । पुणो पुव्वभागहारमब्भहियं काऊण चदुगुणियभागहारं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते कोधकसाइसंजदासजदअवहारकालो होदि । पुणो पुव्वभागहारमभहियं काऊण चदुगुणिदअवहारकालं खंडिय लद्धं तम्हि चेव पक्खित्ते मायकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि । चदुगुणभागहारमसंखेज्जरूवहिं खंडिय लद्धं तम्हि चेव अवणिदे लोभकसाइसंजदासंजदअवहारकालो होदि । पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अणियट्टि ति दव्वपमाणेण केवडिया, संखेज्जा ॥ १३६ ॥ ओषमिदि अभणिय संखेज्जा इदि किमé वुच्चदे ? ण एस दोसो, कुदो ? ओघसम्यादृष्टियोंका भवहारकाल होता है। इस मायाकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर मानकषायवाले असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अवहारकाल होता है। इस मानकषाय असंयतसम्यग्दृष्टि अवहारकालको संख्यातसे गुणित करने पर क्रोधकषायी असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अपहारकाल होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंका भी कथन करना चाहिये । ओघ संयतासंयतोंके अवहारकालको चारसे गणित करके जो लब्ध आवे उसकी चार प्रतिराशियां करके उनमेंसे एक राशिको असंख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी राशिमें मिला देने पर मानकषायवाले संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है। पुनः पूर्व भागहारको अभ्यधिक करके और उससे चतुर्गुणित भाग. हारको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देने पर क्रोधकषायी संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है । पुनः पूर्व भागहारको अभ्यधिक करके और उससे चतुर्गुणित अवहारकालको खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी में मिला देने पर मायाकषायी संयतासंयतोंका भवहारकाल होता है। चतुर्गुणित भागहारको असंख्यातसे खंडित करके जो लब्ध आवे उसे उसी चतुर्गुणित भागाहारमेंसे घटा देने पर लोभकषायी संयतासंयतोंका अवहारकाल होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानतक चारों कषायवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ॥ १३६ ॥ शंका-सूत्रमें 'ओघ' ऐसा न कह कर 'संखेज्जा' इसप्रकार किसलिये कहा है। प्रमत्तसंयतादयोऽनिवृत्तिबादरान्ताः संख्येयाः । स.सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001397
Book TitleShatkhandagama Pustak 03
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1941
Total Pages626
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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