________________
१३०] छक्खंडागमे जौवट्ठाणं
[१, २, १३८. खवगोवसामगसुहुमसांपराइएसु सुहुमलोभकसायवदिरित्तसांपरायाभावादो ओघ ण विरुज्झदे।
अकसाईसु उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था ओघं ॥ १३८॥
एत्थ भावकसायाभावं पेक्खिऊण उवसंतकसाया अकसाइणो ण दव्वकसायाभावं पडि, उदओदीरणोकट्टणुक्कट्टण-परपयडिसंकमादिविरहिददव्वकम्मरस तत्थुवलंभादो । चउबिहदव्वकम्मभेएण चउबिहत्तो मूलो उवसंतकसायरासी कधं पादेकं मूलोघपमाणं पावदे १ ण एस दोसो, कुदो ? वुच्चदे- ण ताव दव्यकसायविसेसणमेत्थ संभवइ, तेण अहियाराभावा । ण भावकसायविसेसणं पि संभवइ, तस्स तत्थाभावादो। तदो उवसंतकसायरासी ण चदुविहा विहज्जदे तो चेव मूलोपत्तं पि तस्स ण विरुज्झदि ति ।
( खीणकसायवीदरागछदुमत्था अजोगिकेवली ओघं ॥ १३९ ॥)
क्षपक और उपशामक सूक्ष्म सांपरायिक जीवों में सूक्ष्म लोभ कषायसे व्यतिरिक्त कषाय नहीं पाई जानेके कारण सूक्ष्म लोभियोंके प्रमाणको ओघत्वका प्रतिपादन करना विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
कषायरहित जीवोंमें उपशान्तकषाय वीतराग छमस्थ जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १३८॥ .
यहां भाव कषायका अभाव देखकर उपशान्तकषाय जीवोंको अकषायी कहा है, द्रव्य कषायके अभावकी अपेक्षासे नहीं, क्योंकि, उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमण आदिसे रहित द्रव्य कर्म वहां उपशान्तकषाय गुणस्थानमें पाया जाता है।
शंका-द्रव्य कर्म चार प्रकारका होनेसे चार भेदोंमें विभक्त मूल उपशान्तकषायराशि प्रत्येक मूलोघ प्रमाणको कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है। दोष क्यों नहीं है, आगे इसीका कारण कहते हैंद्रव्यकषायरूप विशेषण तो यहां संभव नहीं है, क्योंकि, उसका यहां अधिकार नहीं है। भावकषाय विशेषण भी संभव नहीं है, क्योंकि, भावकषाय वहां पाया नहीं जाता है। अतएव उपशान्तकषाय जीवराशि चार भेदों में विभक्त नहीं होती है और इसलिये उसके मूलोघपना भी विरोधको प्राप्त नहीं होता है।
क्षीणकषायवीतरागछमस्थ जीव और अयोगिकेवली जीव ओघप्ररूपणाके समान हैं ॥ १३९ ॥
१अकषाया उपशान्तकषायादयोऽयोगकेवल्यन्ताः सामान्योक्तसंख्याः । स. सि. १,८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org